Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 253
________________ २३४ पृष्ठ १ २४ ३८ ૪૪ ४४ ४५ ४५ Jain Education International कार्तिकेयानुप्रेक्षा दोहा संवत्सर विक्रमतर, सठि सावण तीज बदि, मर्म सु पाय । जैनधर्म जयवन्त जग, जाको वस्तु यथारथरूप लखि, ध्यायें शिवपुर जाय || १३ || इति श्रीस्वामिकार्तिकेय विरचित द्वादशानुप्रेक्षा जयचन्दजी कृत वचनिका हिन्दी अनुवाद सहित समाप्त | लाइन १३ १७ अंतिम १४ १६ १३ १६ अष्टादशशत जानि । पूरण भयो सुमानि ॥ १२ ॥ शुद्धि - पत्र अशुद्ध तनुनगनंतर कस रूवादु चेव चेव चेव चेव For Private & Personal Use Only शुद्ध तनुनगनधर कैसे रूवा हुँ च्चैव चचंव चचैव च्चैव www.jainelibrary.org

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