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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
दोहा
संवत्सर विक्रमतर, सठि सावण तीज बदि,
मर्म सु पाय ।
जैनधर्म जयवन्त जग, जाको वस्तु यथारथरूप लखि, ध्यायें शिवपुर जाय || १३ || इति श्रीस्वामिकार्तिकेय विरचित द्वादशानुप्रेक्षा जयचन्दजी कृत वचनिका हिन्दी अनुवाद सहित समाप्त |
लाइन
१३
१७
अंतिम
१४
१६
१३
१६
अष्टादशशत जानि । पूरण भयो सुमानि ॥ १२ ॥
शुद्धि - पत्र
अशुद्ध
तनुनगनंतर
कस
रूवादु
चेव
चेव
चेव
चेव
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शुद्ध
तनुनगनधर
कैसे
रूवा हुँ
च्चैव
चचंव
चचैव
च्चैव
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