Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 251
________________ २३२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ वारसअणुपेक्खाओ जिणागमाणुसारेण भणिया हु ] ये बारह अनुप्रेक्षायें जिनागमके अनुसार कही हैं ( इस वचनसे यह बताया है कि मैंने कल्पित नहीं कही है शास्त्रानुसार कही है ) [ जो पढइ सुणइ भावइ ] जो भव्यजीव इनको पढ़े, सुने और इनकी भावना ( बारम्बार चिन्तवन ) करे [ सो उत्तम सोक्खं पावइ ] सो उत्तम ( बाधारहित, अविनाशी, स्वात्मीक ) सुखको पावे । यह सम्भावनारूप कर्त्तव्य अर्थका उपदेश जानना । भव्यजीव है सो पढ़ो, सुनो, बारम्बार इनके चिन्तवनरूप भावना करो। अब अन्त्यमंगल करते हैंतिहुयणपहाणस्वामि, कुमारकाले वि तविय तवचरणं । वसुपुज्जसुयं मल्लि, चरिमतियं संथुवे णिच्चं ॥४८६।। अन्वयार्थः-[ तिहुयणपहाणस्वामि ] तीन भुवनके प्रधान स्वामी तीर्थंकरदेव जिन्होंने [ कुमारकाले वितविय तवचरणं ] कुमारकाल में ही तपश्चरण धारण किया ऐसे [ वसुपुजसुयं मल्लि चरिमतियं ] वसुपूज्य राजाके पुत्र वासुपूज्यजिन, मल्लिजिन और चरिमतिय ( अन्तके तीन ) नेमिनाथ जिन, पार्श्वनाथ जिन, वर्द्ध मानजिन इन पांचों जिनोंका मैं [णिच्च संथवे नित्य ही स्तवन करता हूँ उनके गुणानुवाद करता हूँ, वंदन करता हूँ। भावार्थः -ऐसे कुमारश्रमण पाँच तीर्थंकरोंको स्तवन नमस्काररूप अन्तमंगल किया है । यहाँ ऐसा सूचित होता है कि आप ( श्रीस्वामिकार्तिकेय ) कुमार अवस्थामें मुनि हुए हैं इसीलिये कुमार तीर्थंकरोंसे विशेष प्रीति उत्पन्न हुई है इसलिये उनके नामरूप अन्तमंगल किया है। ऐसे श्रीस्वामिकार्तिकेय मुनिने यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ समाप्त किया । अब इस वचनिकाके होनेका सम्बन्ध लिखते हैं दोहा प्राकृत स्वामिकुमार कृत, अनुप्रेक्षा शुभ ग्रन्थ । देशवचनिका तासकी, पढी लगौ शिव पन्थ ।।१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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