Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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द्वादश तप
२३३
चौपाई देश हुँढाहड़ जयपुर थान, जगतसिंह नृपराज महान । न्यायबुद्धि ताकै नित रहै, ताकी महिमा को कवि कहै ।।२।। ताके मन्त्री बहुगुणवान, तिनकै मन्त्र राजसुविधान । ईति भीति लोकनिकै नाहिं, जो व्यापै तो झट मिटि जाहिं ॥३।। धर्मभेद सब मतके भले, अपने अपने इष्ट जु चले । जैनधर्मकी कथनी तनी, भक्ति प्रीति जैननिकै धनी ।।४।। तिनमें तेरापंथ कहाव, धरै गुणीजन करै बढाव । तिनिके मध्य नाम जयचन्द्र, मैं हूँ आतमराम अनंद ।।५।। धर्मरागते ग्रंथ विचारि, करि अभ्यास लेय मनधारि । भावन बारह चितवन सार, सो हूँ लखि उपज्यो सुविचार ।।६।। देशवचनिका करिये जोय, सुगम होय बांचै सब कोय । यातें रची वचनिका सार, केवल धर्मराग निरधार ॥७॥ मूलग्रंथतें घटि बढि होय, ज्ञानी पंडित सोधौ सोय । अल्पबुद्धिकी हास्य न करें, संतपुरुष मारग यह धरै ।।८।। बारह भावनकी भावना, बहु लै पुण्ययोग पावना । तीर्थकर वैराग जु होय, तब भावै सब राग जु खोय ||९।। दीक्षा धारै तब निरदोष, केवल ले अरु पावै मोप(मोक्ष)। यह विचारि भावो भवि जीव सब कल्याण सु धरौ सदीव ।।१०॥ पंच परमगुरु अरु जिनधर्म, जिनवानी भाष सब मर्म । चैत्य चैत्यमंदिर पढि नाम, नमूं मानि नव देव सुधाम ।।११।।
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