Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 249
________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब चौथे भेदको कहते हैंजोगविणासं किच्चा, कम्मच उक्कस्स खवणकरण । जं ज्झायदि अजोगिजिणो, णिक्किरियं तं चउत्थं च ॥४८५॥ अन्वयार्थः-[ जोगविणासं किच्चा ] केवली भगवान् योगोंकी प्रवृत्तिका अभाव करके [ अजोगिजिणो ] जब अयोगी जिन हो जाते हैं तब [कम्मचउक्कस्स खवणकरणटुं] सत्तामें स्थित अघातिया कर्मकी पिच्यासी प्रकृतियोंका क्षय करनेके लिये [जं ज्झायदि] जो ध्यान करते हैं [तं चउत्थं णिकिरियं च ] सो चौथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान होता है। भावार्थः-चौदहवाँ गुणस्थान अयोगीजिन है वहाँ स्थिति पंच लघअक्षर प्रमाण है । वहाँ योगोंकी प्रवृत्तिका अभाव है सो सत्तामें अघातिया कर्मकी पिच्यासी प्रकृतियाँ हैं उनके नाशका कारण यह योगोंका रुकना है इसलिये इसको ध्यान कहा है । तेरहवें गुणस्थानकी तरह यहाँ भी ध्यानका उपचार जानना । कुछ इच्छापूर्वक उपयोगको रोकनेरूप ध्यान नहीं है । यहाँ कर्म प्रकृतियों के नाम तथा और भी विशेष कथन अन्य ग्रन्थोंके अनुसार है सो संस्कृतटीकासे जानना । ऐसे ध्यान तपका स्वरूप कहा । अब तपके कथनका संकोच करते हैंएसो वारसभेओ, उग्गतवो जो चरेदि उवजुत्तो। सो खविय कम्मपुजं, मुत्तिसुहं उत्तमं लहदि ॥४८६॥ अन्वयार्थः-[ एसो वारसभेओ] यह बारह प्रकारका तप है [ जो उवजुत्तो उग्गतवो चरेदि ] जो मुनि उपयोग सहित इस उग्रतपका आचरण करता है [ सो कम्मपुंजं खविय ] सो मुनि कर्मसमूहका नाश करके [ उत्तमं मुतिसुहं लहदि ] उत्तम ( अक्षय ) मोक्षसुखको पाता है । भावार्थः-तपसे कर्मकी निर्जरा होती है और संवर होता है ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं इसलिये जो मुनिव्रत लेकर बाह्य अभ्यन्तर भेदरूप तपका विधिपूर्वक आचरण करता है सो मोक्ष पाता है । तब ही कर्मका अभाव होता है इसीसे अविनाशो बाधारहित आत्मीक सुखकी प्राप्ति होती है। ऐसे बारह प्रकारके तपके धारक तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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