Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 246
________________ द्वादश तप २२७ ध्यान करना तथा ऐसा ही संकल्प अपनी आत्माका करके अपना ध्यान करना सो रूपस्थ ध्यान है । देह बिना, बाह्य के अतिशयादिक बिना, अपना दूसरेका ध्याता ध्यान ध्येयके भेद बिना, सर्व विकल्प रहित, परमात्मस्वरूपमें लयको प्राप्त हो जाना सो रूपातीत ध्यान है । ऐसा ध्यान सातवें गुणस्थान में होता है तब श्रेणी मांडता है । यह ध्यान व्यक्तरागसहित चौथे गुणस्थानसे सातवें गुणस्थान तक अनेक भेदरूप प्रवर्त्तता है । अब शुक्लध्यानको पाँच गाथाओंमें कहते हैंजत्थ गुणा सुविसुद्धा, उवसमखमणं च जत्थ कम्माणं । लेसा वि जत्थ सुका, तं सुक्कं भरणदे ज्झाणं ॥४८१॥ अन्वयार्थः-[ जत्थ सुविसुद्धा गुणा ] जहाँ भले प्रकार विशुद्ध ( व्यक्त कषायोंके अनुभव रहित ) उज्ज्वल गुण ( ज्ञानोपयोग आदि ) हों [ जत्थ कम्माण उवसमखमणं च ] जहाँ कर्मोंका उपशम तथा क्षय हो [जत्थ लेसा वि सुका ] और जहाँ लेश्या भी शुक्ल ही हो [ तं सुक्कं ज्झाणं भण्णदे ] उसको शुक्लध्यान कहते हैं । भावार्थ:-यह सामान्य शुक्लध्यानका स्वरूप कहा, विशेष आगे कहेंगे । कर्मके उपशम और क्षयका विधान अन्य ग्रन्थोंसे टीकाकारने लिखा है सो आगे लिखेंगे । अब विशेष भेदोंको कहते हैंपडिसमयं सुज्झतो अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए । पढमं सुक्कं ज्झायदि, आरूढो उभयसेणीसु ॥४८२॥ अन्वयार्थः-[ उभय सेणीसु आरूढो ] उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में आरूढ होकर [ पडिसमयं ] समय समय [ अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए सुझंतो ] अनन्तगुणी विशुद्धता कर्मके उपशम तथा क्षयरूपसे शुद्ध होता हुआ मुनि [पढमं सुक्कं ज्झायदि प्रथम शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान करता है । भावार्थः–पहिले मिथ्यात्व तीन, कषाय अनन्तानुबन्धी चार, प्रकृतियोंका उपशम तथा क्षय होनेसे सम्यग्दृष्टि होता है। फिर अप्रमत्त गुणस्थानमें सातिशय विशुद्धतासहित हो श्रेणी प्रारम्भ करता है, तब अपूर्वकरण गुणस्थान होकर शुक्लध्यानका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254