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द्वादश तप
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ध्यान करना तथा ऐसा ही संकल्प अपनी आत्माका करके अपना ध्यान करना सो रूपस्थ ध्यान है । देह बिना, बाह्य के अतिशयादिक बिना, अपना दूसरेका ध्याता ध्यान ध्येयके भेद बिना, सर्व विकल्प रहित, परमात्मस्वरूपमें लयको प्राप्त हो जाना सो रूपातीत ध्यान है । ऐसा ध्यान सातवें गुणस्थान में होता है तब श्रेणी मांडता है । यह ध्यान व्यक्तरागसहित चौथे गुणस्थानसे सातवें गुणस्थान तक अनेक भेदरूप प्रवर्त्तता है ।
अब शुक्लध्यानको पाँच गाथाओंमें कहते हैंजत्थ गुणा सुविसुद्धा, उवसमखमणं च जत्थ कम्माणं । लेसा वि जत्थ सुका, तं सुक्कं भरणदे ज्झाणं ॥४८१॥
अन्वयार्थः-[ जत्थ सुविसुद्धा गुणा ] जहाँ भले प्रकार विशुद्ध ( व्यक्त कषायोंके अनुभव रहित ) उज्ज्वल गुण ( ज्ञानोपयोग आदि ) हों [ जत्थ कम्माण उवसमखमणं च ] जहाँ कर्मोंका उपशम तथा क्षय हो [जत्थ लेसा वि सुका ] और जहाँ लेश्या भी शुक्ल ही हो [ तं सुक्कं ज्झाणं भण्णदे ] उसको शुक्लध्यान कहते हैं ।
भावार्थ:-यह सामान्य शुक्लध्यानका स्वरूप कहा, विशेष आगे कहेंगे । कर्मके उपशम और क्षयका विधान अन्य ग्रन्थोंसे टीकाकारने लिखा है सो आगे लिखेंगे ।
अब विशेष भेदोंको कहते हैंपडिसमयं सुज्झतो अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए ।
पढमं सुक्कं ज्झायदि, आरूढो उभयसेणीसु ॥४८२॥
अन्वयार्थः-[ उभय सेणीसु आरूढो ] उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में आरूढ होकर [ पडिसमयं ] समय समय [ अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए सुझंतो ] अनन्तगुणी विशुद्धता कर्मके उपशम तथा क्षयरूपसे शुद्ध होता हुआ मुनि [पढमं सुक्कं ज्झायदि प्रथम शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान करता है ।
भावार्थः–पहिले मिथ्यात्व तीन, कषाय अनन्तानुबन्धी चार, प्रकृतियोंका उपशम तथा क्षय होनेसे सम्यग्दृष्टि होता है। फिर अप्रमत्त गुणस्थानमें सातिशय विशुद्धतासहित हो श्रेणी प्रारम्भ करता है, तब अपूर्वकरण गुणस्थान होकर शुक्लध्यानका
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