Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 245
________________ २२६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पदस्थक, पिण्डस्य, रूपस्थ, रूपातीत ऐसे भी धर्मध्यान चार प्रकारका होता है । पद अक्षरोंके समुदायको कहते हैं इसलिये परमेष्ठोके वाचक अक्षर जिनको मंत्र संज्ञा है सो उन अक्षरोंको प्रधान कर परमेष्ठीका चिन्तवन करे उस समय जिस अक्षरमें एकाग्रचित्त होता है सो उसका ध्यान कहलाता है । णमोकारमंत्रके पैतीस अक्षर हैं वे प्रसिद्ध हैं उनमें मन लगावे तथा उस ही मंत्रको भेदरूप करने पर संक्षिप्त सोलह अक्षर हैं-"अरहन्त सिद्ध आइरिय, उवज्झाय साहू: । इसहीके भेदरूप 'अरहन्त सिद्ध' ये छह अक्षर हैं । इसहीका संक्षेप "अ सि आ उ सा" ये आदि अक्षररूप पाँच अक्षर हैं । "अरहन्त" ये चार अक्षर हैं । "सिद्ध" अथवा "अहं" ये दो अक्षर हैं । "ॐ" यह एक अक्षर है इसमें पंचपरमेष्ठीके सब आदिके अक्षर है । अरहन्तका अकार, अशरीर ( सिद्ध ) का अकार, आचार्यका आकार, उपाध्यायका उकार, मुनिका मकार ऐसे पांच अक्षर अ+अ+आ+उ+म्="औम" ऐसा सिद्ध होता है । ये मंत्रवाक्य हैं इसलिये इनके उच्चारणरूपसे मनमें चिन्तवनरूप ध्यान करे तथा इनका वाच्य अर्थ जो परमेष्ठी है उनका अनन्तज्ञानादिरूप स्वरूप विचार कर ध्यान करना । अन्य भो बारह हजार श्लोकरूप नमस्कार ग्रन्थ हैं उनके अनुसार तथा लघु वृहत् सिद्धचक्र प्रतिष्ठा ग्रन्थोंमें मन्त्र कहे गये हैं उनका ध्यान करना चाहिये । मंत्रोंका विशेष वर्णन संस्कृत टीकामें है सो वहाँसे जानना । यहाँ संक्षेपसे लिखा है यह सब पदस्थध्यान है । पिण्डका अर्थ शरीर है उसमें पुरुषाकार अमूर्तीक अनन्तचतुष्टय सहित जैसा परमात्माका स्वरूप है वैसा ही आत्माका चितवन करना सो पिण्डस्थध्यान है । रूप अर्थात् अरहन्त का रूप, समोसरणमें घातिकर्मरहित, चौतीस अतिशय आठ प्रातिहार्य सहित, अनन्त चतुष्टयमंडित, इन्द्रादिसे पूज्य, परम औदारिक शरीर सहित ऐसे अरहन्तका * पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । __ रूपस्थं सर्वचिद्रूपं, रूपातीतं निरंजनं ।। x णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।। : अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः। * अरहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मूणिणो । पढमक्खरणिप्पण्णो, ओंकारो पंचपरमेट्ठी ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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