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द्वादश तप
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वज्जियसयलवियप्पो, अप्पसरूवे मणं णिरुंधत्तो। जं चिंतदि साणंद, तं धम्मं उत्तमं झाणं ॥४८०॥
अन्वयार्थः-[ जं] जो [ वज्जियसयलवियप्पो ] समस्त अन्य विकल्पोंको छोड़ [ अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो ] आत्मस्वरूपमें मनको रोककर [ साणंदं चिंतदि ] आनन्द सहित चिन्तवन करता है [ तं उत्तमं धम्मं ज्झाणं] सो उत्तम धर्मध्यान है।
भावार्थ:-समस्त अन्य विकल्पोंसे रहित आत्मस्वरूपमें मनको रोकनेसे आनन्दरूप चिन्तवन होता है सो उत्तम धर्मध्यान है। यहाँ संस्कृतटीकाकारने धर्मध्यानका अन्य ग्रन्थोंके अनुसार विशेष कथन किया है उसको संक्षेपसे लिखते हैं ।
धर्मध्यानके चार भेद हैं, १ आज्ञाविचय, २ अपायविचय, ३ विपाकविचय, ४ संस्थान विचय । जीवादिक छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व और नौ पदार्थोंका विशेष स्वरूप विशिष्ट गुरुके अभावसे तथा अपनी मन्दबुद्धिके कारण, प्रमाण नय निक्षेपोंसे साधन कर सके ऐसा न जाना जा सके तब ऐसा श्रद्धान करे कि जो सर्वज्ञ वीतराग देवने कहा है सो हमें प्रमाण है ऐसे आज्ञा मानकर उसके अनुसार पदार्थों में उपयोगको रोकना सो* १ आज्ञाविचय धर्मध्यान है ।
___ अपायका अर्थ नाश है इसलिये जैसे कर्मोंका नाश हो वैसा चिन्तवन करना तथा मिथ्यात्वभाव धर्म में विघ्नका कारण है इसका चिन्तवन रखना, इसका अपने न होनेका चिन्तवन दूसरेके दूर करनेका चिन्तवन करना सो २ अपायविचय है । विपाकका अर्थ कर्मका उदय है इसलिये जैसा कर्मका उदय हो उसके वैसे ही स्वरूपका चिन्तवन करना सो ३ विपाकविचय है । लोकके स्वरूपका चिन्तवन करना सो ४ संस्थानविचय है । धर्मध्यानके दस भेद भी होते हैं, १ अपाय विचय, २ उपायविचय, ३ जीवविचय, ४ आज्ञाविचय, ५ विपाकविचय, ६ अजीवविचय, ७ हेतुविचय, ८ विरागविचय, ६ भव विचय, १० संस्थानविचय, ऐसे इन दसोंका चिन्तवन सो इन चार भेदोंके ही विशेष भेद किये गये है।
* सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते ।
आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्य, नान्यथावादिनो जिनाः ॥
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