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द्वादश तप
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अब धर्मध्यानको कहते हैंविरिण वि असुहे ज्झाणे, पावणिहाणे य दुक्खसंताणे । तम्हा दूरे वज्जह, धम्मे पुण आयरं कुणह ॥४७५॥
अन्वयार्थः- [ विण्णि विज्झाणे असुहे ] हे भव्यजीवों ! आत और रौद्र ये दोनों ही ध्यान अशुभ हैं [ पावणिहाणे य दुक्खसंताणे ] पापके निधान और दुःखकी सन्तान [ तम्हा दूरे वजह ] जानकर दूरहीसे छोड़ो [ पुण धम्मे आयरं कुणह ] और धर्मध्यान में आदर करो।
भावार्थ:-आर्त्त रौद्र दोनों ही ध्यान अशुभ हैं तथा पापसे भरे हैं और दुःखहीकी संतति इनसे चलतो है इसलिये इनको छोड़कर धर्मध्यान करनेका श्रीगुरुका उपदेश है।
अब धर्मका स्वरूप कहते हैं
धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो ।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥४७६॥
अन्वयार्थः- [ वत्थुसहावो धम्मो ] वस्तुका स्वभाव धर्म है जैसे जीवका स्वभाव दर्शन ज्ञान स्वरूप चैतन्यता सो इसका यहो धर्म है [खमादिभावो य दसविहो धम्मो ] दस प्रकारके क्षमादिभाव धर्म है [ रयणत्यं य धम्मो ] रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) धर्म है [ जीवाणं रक्खणं धम्मो ] और जीवोंकी रक्षा करना भी धर्म है।
भावार्थ:-अभेदविवक्षासे तो वस्तुका स्वभाव धर्म है । जीवका चैतन्यस्त्रभाव ही इसका धर्म है । भेदविवक्षासे दसलक्षण उत्तम क्षमादिक तथा रत्नत्रयादिक धर्म है । निश्चयसे तो अपने चैतन्यकी रक्षा, विभावपरिणतिरूप नहीं परिणमना है और व्यवहारसे परजीवको विभावरूप, दुःख क्लेशरूप न करना, उसोका भेद जीवका प्राणान्त न करना सो धर्म है।
अब धर्मध्यान कैसे जीवके होता है सो कहते हैं
धम्मे एयग्गमणो, जो ण वि वेदेदि पंचहा विसयं । वेरग्गमओ णाणी, धम्मज्झाणं हवे तस्स ॥४७७।।
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