Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ २०२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब धर्मात्मा जीवकी प्रवृत्ति कहते हैंजो धम्मत्थो जीवो, सो रिउवग्गे वि कुणदि खमभावं । ता परदव्वं वज्जइ, जणणिसमं गणइ परदारं ॥४२८॥ अन्वयार्थः- [ जो जीवो धम्मत्थो ] जो जीव धर्म में स्थित है [ लो रिउवग्गे वि खमभावं कुणदि ] वह शत्रुओंके समूह पर भी क्षमा भाव करता है [ ता परदव्वं वजइ ] दूसरेके द्रव्यको त्यागता है, ग्रहण नहीं करता है [ परदारं जणणिसमं गणइ ] परस्त्रीको माता बहिन कन्याके समान समझता है । ता सव्वत्थ वि कित्ती, ता सव्वस्स वि हवेइ वीसासो। ता सव्वं पिय भासइ, ता शुद्धं माणसं कुणई ॥४२६॥ अन्वयार्थः-[ता सव्वत्थ वि कित्ती ] जो जीव धर्म में स्थित है तो उसकी सब लोकमें कीत्ति होती है [ता सव्वस्स वि वीसासो हवे ] उसका सब लोक विश्वास करता है [ ता सव्वं पिय भासइ ] वह पुरुष सबको प्रियवचन कहता है जिससे कोई दुःख नहीं पाता है [ ता सुद्धं माणसं कुणई ] और वह पुरुष अपने तथा दूसरेके मनको शुद्ध ( उज्ज्वल ) करता है, किसीको इससे कालिमा नहीं रहती है वैसे ही इसको भी किसीसे कालिमा ( मानसिक कुटिलता ) नहीं रहती है । भावार्थ:-धर्म सब प्रकारसे सुखदाई है । अब धर्मका माहात्म्य कहते हैं उत्तमधम्मेण जुदो, होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो । चंडालो वि सुरिंदो, उत्तमधम्मेण संभवदि ॥४३०॥ अन्वयार्थः-[ उत्तमधम्मेण जुदो तिरक्खो वि उत्तमो देवो होदि ] सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मसे युक्त तिथंच भी उत्तम देव होता है [ उत्तमधम्मेण चंडालो वि सुरिंदो संभवदि ] सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मसे चांडाल भी देवोंका इन्द्र हो जाता है। अग्गी वि य होदि हिमं, होदि भुयंगो वि उत्तमं रयणं । जीवस्स सुधम्मादो, देवा वि य किंकरा होति ॥४३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254