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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब धर्मात्मा जीवकी प्रवृत्ति कहते हैंजो धम्मत्थो जीवो, सो रिउवग्गे वि कुणदि खमभावं । ता परदव्वं वज्जइ, जणणिसमं गणइ परदारं ॥४२८॥
अन्वयार्थः- [ जो जीवो धम्मत्थो ] जो जीव धर्म में स्थित है [ लो रिउवग्गे वि खमभावं कुणदि ] वह शत्रुओंके समूह पर भी क्षमा भाव करता है [ ता परदव्वं वजइ ] दूसरेके द्रव्यको त्यागता है, ग्रहण नहीं करता है [ परदारं जणणिसमं गणइ ] परस्त्रीको माता बहिन कन्याके समान समझता है ।
ता सव्वत्थ वि कित्ती, ता सव्वस्स वि हवेइ वीसासो। ता सव्वं पिय भासइ, ता शुद्धं माणसं कुणई ॥४२६॥
अन्वयार्थः-[ता सव्वत्थ वि कित्ती ] जो जीव धर्म में स्थित है तो उसकी सब लोकमें कीत्ति होती है [ता सव्वस्स वि वीसासो हवे ] उसका सब लोक विश्वास करता है [ ता सव्वं पिय भासइ ] वह पुरुष सबको प्रियवचन कहता है जिससे कोई दुःख नहीं पाता है [ ता सुद्धं माणसं कुणई ] और वह पुरुष अपने तथा दूसरेके मनको शुद्ध ( उज्ज्वल ) करता है, किसीको इससे कालिमा नहीं रहती है वैसे ही इसको भी किसीसे कालिमा ( मानसिक कुटिलता ) नहीं रहती है ।
भावार्थ:-धर्म सब प्रकारसे सुखदाई है । अब धर्मका माहात्म्य कहते हैं
उत्तमधम्मेण जुदो, होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो ।
चंडालो वि सुरिंदो, उत्तमधम्मेण संभवदि ॥४३०॥
अन्वयार्थः-[ उत्तमधम्मेण जुदो तिरक्खो वि उत्तमो देवो होदि ] सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मसे युक्त तिथंच भी उत्तम देव होता है [ उत्तमधम्मेण चंडालो वि सुरिंदो संभवदि ] सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मसे चांडाल भी देवोंका इन्द्र हो जाता है।
अग्गी वि य होदि हिमं, होदि भुयंगो वि उत्तमं रयणं । जीवस्स सुधम्मादो, देवा वि य किंकरा होति ॥४३१॥
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