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द्वादश तप
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अन्वयार्थः-[जो आहारगिद्धिरहियो ] जो तपस्वी आहारकी अतिचाहसे रहित होकर [ चरियामग्गेण जोग्गं पासुगं] शास्त्रोक्त चर्याकी विधिसे योग्य प्रासुक आहार [ अप्पयरं भुजइ ] अति अल्प लेता है [ तस्स अवमोदरियं तवं ] उसके अवमौदर्य तप होता है।
भावार्थ:-मुनि आहारके छियालीस दोष, बत्तीस अन्तराय टालकर चौदह मल रहित प्रासुक, योग्य भोजन लेते हैं तो भी ऊनोदर तप करते हैं, अपने आहारके प्रमाणसे थोड़ा लेते हैं । एक ग्राससे बत्तीस ग्रास तक आहारका प्रमाण कहा गया है उसमें इच्छानुसार घटाकर लेना सो अवमौदर्य तप है ।
जो पुण कित्तिणिमित्तं, मायाए मिट्ठभिक्खलाहटु ।
अप्पं भुजदि भोज्जं, तस्स तवं णिप्फलं बिदियं ॥४४२॥ __ अन्वयार्थः-[जो पुण कितिणिमित्र ] जो मुनि कीर्तिके निमित्त तथा [ मायाए मिट्ठभिक्खलाहटु] माया ( कपट ) से और मिष्ट भोजनके लाभके लिए [ अप्पं भोज्जं भुजदि ] अल्प भोजन करता है (तपका नाम करता है) [ तस्स बिदियं तवं णिप्फलं ] उसके दूसरा अवमौदर्य वप निष्फल है ।
भावार्थ:-जो ऐसा विचार करे कि अल्प भोजन करनेसे मेरी कीर्ति होगी तथा कपटसे लोगोंको धोखा देकर कुछ प्रयोजन सिद्ध कर लूंगा और थोड़ा भोजन करने पर भोजन मिष्ट रससहित मिलेगा ऐसे अभिप्रायोंसे ऊमोदर तप करे तो वह निष्फल है । यह तप नहीं, पाखण्ड है।
अब वृत्तिपरिसंख्यान तपको कहते हैं
एगादिगिहपमाणं, किं वा संकप्पकप्पियं विरसं।
भोज्ज पसु व्व भुजदि, वित्तिपमाणं तवो तस्स ॥४४३॥
अन्वयार्थ:-[एगादिगिहपमाणं ] जब मुनि आहारके लिये चले तब पहिले मनमें ऐसी प्रतिज्ञा करे कि आज एक ही घर आहार मिलेगा तो लेंगे, नहीं तो लौट आवेंगे तथा दो घर तक जायेंगे [ किं वा संकप्पकप्पियं विरसं ] एक रसको, देनेवालेकी, पात्रकी प्रतिज्ञा करे कि ऐसा दातार ऐसी रीतिसे ऐसे पात्रमें लेकर देगा तो लेंगे तथा आहारकी प्रतिज्ञा करे कि सरस नीरस या अमुक अन्न मिलेगा तो लेंगे इत्यादि वृत्तिकी
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