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द्वादश तप
२१५ वैसे ही मुनियोंकी भक्ति करना, विनय करना, उनकी आज्ञा मानना, प्रत्यक्षमें देखे तब उठकर सम्मुख हो हाथ जोड़ प्रणाम करे, चले तब पीछे पीछे चले, उपकरण संभाले इत्यादिक उनका विनय करे सो उपचार विनय है ।
अब वैयावृत्य तपको दो गाथाओंमें कहते हैं
जो उवयरदि जदीणं, उवसग्गजराइखीणकायाणं । पूजादिसु गिरवेक्खं, वेज्जावच्चं तवो तस्स ॥४५७॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो [ पूजादिसु णिरवेक्खं ] अपनी पूजा ( महिमा ) आदिमें अपेक्षा ( वांछा ) रहित होकर [ उपसग्गजराइखीणकायाणं जदीणं उवयरदि] उपसर्गपीडित तथा जरा रोगादिसे क्षीणकाय यातियोंका अपनी चेष्टासे, उपदेशसे और अल्प वस्तुसे उपकार करता है [ तस्स वेजावच्चं तवो ] उसके वैयावृत्य नामक तप होता है।
भावार्थ:-निस्पह होकर मुनियों की सेवा करना वैयावृत्य है। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ ये दस प्रकारके यति वैयावृत्य करने योग्य कहे गये हैं । इनका यथायोग्य अपनी शक्ति अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये।
जो वावरइ सरूवे, समदम भावम्मि सुद्धिउवजुत्तो । लोयववहारविरदो, वेज्जावच्चं परं तस्स ॥४५८॥
अन्वयार्थः- [जो समदम भावम्मि वावरइ सरूवे सुद्धिउवजुत्तो ] जो मुनि शमदमभावरूप अपने आत्मस्वरूप में शुद्धोपयोगमय प्रवृत्ति करता है और [ लोयववहारविरदो ] लोकव्यवहार ( बाह्य वैयावृत्य ) से विरक्त होता है [ तस्स परं वेजावच्चं ] उसके उत्कृष्ट ( निश्चय ) वैयावृत्य होता है।
भावार्थ:-जो मुनि सम (रागद्वेषरहित साम्यभाव) और दम ( इन्द्रियोंको विषयों में न जाने देना ) भावरूप अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता है उसके लोकव्यवहाररूप बाह्य वैयावृत्य किस लिये हो ? उसके तो निश्चय वैयावृत्य ही होता है । शुद्धोपयोगी मुनियोंकी यह रीति है ।
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