________________
द्वादश तप
२१६
रहित हो [ ससरूवचितणरभ ] अपने स्वरूपके चितवनमें रत ( लीन ) हो दुजणसुयणाण हु मज्झत्थो ] दुर्जन सज्जन में मध्यस्थ हो ( शत्रु मित्र बराबर जानता हो ) [ देहे वि णिम्ममत्तो ] अधिक क्या कहें, देहमें भी ममत्वरहित हो [ तस्स काओसग्गो तवो ] उसके कायोत्सर्ग नामक तप होता है ।
भावार्थ: - जब मुनि कायोत्सर्ग करता है तब सब बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह त्याग कर, सब बाह्य आहारविहारादिक क्रियासे रहित हो, कायसे ममत्व छोड़, अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें रागद्व ेषरहित, शुद्धोपयोगरूप हो लीन होता है उस समय यदि अनेक उपसर्ग आवे, रोग आवे, कोई शरीरको काट ही डाले तो भी अपने स्वरूपसे चलायमान नहीं होता है, किसीसे रागद्वेष नहीं करता है उसके कायोत्सर्ग तप होता है ।
3
जो देहधारणपरो, उवयरणादिविसेससंसत्तो । बाहिरखवहाररओ, काओसग्गो कुदो तस्स ||४६७।।
अन्वयार्थः - [ जो देहधारणपरो] जो मुनि देहका पालन करनेमें तत्पर हो [ उवयरणादीविसेससंसतो ] उपकरणादिक में विशेष संसक्त हो [ बाहिरववहाररओ ] और बाह्य व्यवहार ( लोकरंजन ) करनेमें रत हो ( तत्पर हो ) [ तस्स काओसग्गो कुदो] उसके कायोत्सर्ग तप कैसे हो ?
Jain Education International
भावार्थ:- जो मुनि बाह्य व्यवहार पूजा प्रतिष्ठा आदि तथा ईर्यासमिति आदि क्रियाओं में ( जिनसे लोग जानें कि यह मुनि है ) तत्पर हो, देहका आहारादिकसे पालन करना, उपकरणादिकका विशेष सँवारना ( सजाना ), शिष्यजनोंसे बहुत ममत्व रखकर प्रसन्न होना इत्यादिमें लीन हो और अपने स्वरूपका यथार्थ अनुभव जिसके नहीं है, उसमें कभी लीन होता ही नहीं है यदि कायोत्सर्ग भी करता है तो खड़े रहना आदि बाह्य विधान कर लेता है उसके कायोत्सर्ग तप नहीं होता है, निश्चयके बिना बाह्यव्यवहार निरर्थक है ।
अंतो मुहुत्तमेत्तं, लीणं वत्थुम्मि माणसं जाणं । ज्झाणं भण्णदि समए, असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥ ४६८ ||
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org