Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 239
________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ::- [ माणसं गाणं वत्थुम्मि अन्तो मुहुत्तमेरा लीणं ] जो मनसम्बन्धी ज्ञान वस्तु में अन्तर्मुहूर्तमात्र लीन होता है ( एकाग्र होता है ) सो [ समए ज्झाणं भदि ] सिद्धान्त में ध्यान कहा गया है [ तं च असुहं सुहं च दुविहं ] और वह शुभ अशुभ भेदसे दो प्रकारका है । २२० भावार्थ:- - ध्यान परमार्थसे ज्ञानका उपयोग ही है । जो ज्ञानका उपयोग एक ज्ञेय वस्तु में अन्तर्मुहूर्त्तमात्र एकाग्र ठहरता है सो ध्यान है वह शुभ भी है और अशुभ भी है ऐसे दो प्रकारका है । अब शुभ अशुभध्यानके नाम व स्वरूप कहते हैं असुहं अट्ट रउद्द, धम्मं सुकं च सुद्दयरं होदि । अ तिव्वकषायं तिव्वतमकसायदो रुह ं ॥४६६॥ " अन्वयार्थः – [ अट्ट रउद्दं अमुहं ] आर्तध्यान रौद्रध्यान ये दोनों तो अशुभ ध्यान [ धम्मं सुक्कं च सुहयरं होदि ] और धर्म ध्यान शुक्लध्यान ये दोनों शुभ और शुभतर हैं [ अट्टं तिव्वकषायं ] इनमें आदिका आर्त्तध्यान तो तीव्र कषायसे होता है [ रुद्द तिब्बतमकसायदो ] और रोद्रध्यान अति तीव्र कषायसे होता है । मंदकषायं धम्मं, मंदतमक सायदो हवे सुक्कं । अकसाए वि सुयड्ढे, केवलणाणे वि तं होदि ॥ ४७० ॥ अन्वयार्थः – [ धम्मं मंदकषायं ] धर्मध्यान मन्दकषायसे होता है [ सुक्कं मंदतमसायद हवे ] शुक्लध्यान अत्यन्त मन्दकषायमें होता है, श्रेणी चढ़नेवाले महामुनि होता है [ अकसाए वि सुयड्ढे केवलणाणे वि तं होदि ] और वह शुक्लध्यान कषायका अभाव होनेपर श्रुतज्ञानी, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, केवलज्ञानी, सयोगी तथा अयोगी जिनके भी होता है । - भावार्थः — धर्मध्यानमें तो व्यक्तरागसहित पंच परमेष्ठी तथा दसलक्षणस्वरूप इसलिये इसको मन्दकषाय सहित है व्यक्तराग तो नहीं होता और अपने धर्म और आत्मस्वरूप में उपयोग एकाग्र होता है ऐसा कहा है । शुक्लध्यानके समय उपयोग में अनुभव में न आवे ऐसे सूक्ष्मराग सहित श्रेणी चढ़ता है वहाँ आत्मपरिणाम उज्ज्वल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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