Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 236
________________ द्वादश तप २१७ साधर्मी-सम्यग्दृष्टि जैनियोके प्रतिकूल ( विपरीत ) है [पंडियमाणी] सो, पंडितमन्य है ( जो पण्डित तो होता नहीं है और अपनेको पण्डित मानता है उसको पण्डितमन्य कहते हैं ) [ तस्स सत्थं पि विसं हवे ] उसके वह ही शास्त्र विषरूप परिणमता है । भावार्थ:-जैनशास्त्र पढ़कर भी तीवकषायी भोगाभिलाषी हो जैनियोंसे प्रतिकूल रहे ऐसे पण्डितमन्यके शास्त्र ही विष हुआ कहना चाहिये, यदि यह मुनि भी होवे तो भेषी पाखण्डी ही कहलाता है। जो जुद्धकामसत्थं, रायदोसेहिं परिणदो पढइ । लोयावंचणहेदु, सज्झाओ णिप्फलो तस्स ॥४६२॥ ___ अन्वयार्थः-[ जो जुद्धकामसत्थं रायदोसेहिं परिणदो ] जो पुरुष युद्धके शास्त्र कामकथाके शास्त्र रागद्वेषपरिणामसे [ लोयावंचणहेतुं पढइ ] लोगोंको ठगने के लिये पढ़ता है [ तस्स सज्झाओ णिप्फलो ] उसका स्वाध्याय निष्फल है । भावार्थ:-जो पुरुष युद्धके, कामकौतूहलके, मन्त्र ज्योतिष वैद्यक आदिके लौकिक शास्त्र लोगोंको ठगनेके लिये पढ़ता है उसके कैसा स्वायाय है ? यहाँ कोई पूछता है कि मुनि और पण्डित तो सब ही शास्त्र पढ़ते हैं वे किसलिए पढ़ते हैं इसका समाधान रागद्वषसे अपने विषय आजीविका पुष्ट करनेको, लोगोंको ठगनेको पढ़नेका निषेध है । जो धर्मार्थी होकर कुछ प्रयोजन जान इन शास्त्रोंको पढ़े, ज्ञान बढ़ाना, परोपकार करना, पुण्यपापका विशेष निर्णय करना, स्व पर मतकी चर्चा जानना, पण्डित हो तो धर्मकी प्रभावना हो कि जैनमतमें ऐसे पण्डित हैं इत्यादि प्रयोजन हैं उसका निषेध नहीं है । दुष्ट अभिप्राय से पढ़नेका निषेध है ।। जो अप्पाणं जाणदि, असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं । जाणगरूवसरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥४६३॥ अन्वयार्थः-[ नो अप्पाणं असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं ] जो मुनि अपनी आत्माको इस अपवित्रशरीरसे भिन्न [ जाणगरूवसरूवं जाणदि ] ज्ञायकरूप स्वरूप जानता है [ सो सव्वं सत्थं जाणदे] वह सब शास्त्रोंको जानता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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