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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अब स्वाध्याय तपको छह गाथाओंसे कहते हैं
परततीरिवेक्खो, दुवियप्पाण वासरास मत्थो ।
तच्च विच्छियहेदू, सज्झायो ज्मा सिद्धियरो ||४५६ ॥ अन्वयार्थः – [ परततीणिरवेक्खो ] जो मुनि दूसरेकी निन्दामें निरपेक्ष ( वांछारहित ) होता है [ दुट्ठवियप्पाण णासणसमत्थो ] मनके दुष्ट विकल्पों का नाश करने में समर्थ होता है [ तच्चविणिच्छयहेदू ] उसके तत्त्वके निश्चय करनेका कारण और [ ज्झाणसिद्धियरो ] ध्यानकी सिद्धि करनेवाला [ सज्झाओ ] स्वाध्याय नामक तप होता है ।
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भावार्थ:- जो परकी निन्दा करनेमें परिणाम रखता है और आर्त्तरौद्रध्यानरूप खोटे विकल्प मनमें चितवन किया करता है उसके शास्त्रोंका अभ्यासरूप स्वाध्याय कैसे हो ? इसलिये इनको छोड़कर जो स्वाध्याय करता है उसके तत्त्वका निश्चय होता है और धर्म शुक्ल ध्यानकी सिद्धि होती है, ऐसा स्वाध्याय तप है ।
पूयादिसु रिवेक्खो, जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममलसोहणट्टं, सुयलाही सुहयरो तस्स ॥४६०॥
अन्वयार्थः - [ जो पूयादिसु णिरवेक्खो ] जो मुनि अपनी पूजा आदिमें निरपेक्ष ( वांछारहित ) होता है और [कम्ममलसोहण ] कर्मरूपी मैलका नाश करनेके लिए [ भी जिणसत्थं पढेइ ] भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रको पढ़ता है [ तस्स सुयलाहो सुहयरो ] उसको श्रुतका लाभ सुखकारी होता है ।
भावार्थ:- जो पूजा महिमा आदिके लिये शास्त्रको पढ़ता है उसको शास्त्रका पढ़ना सुखकारी नहीं है । अपने कर्मक्षयके निमित्त जिन - शास्त्रोंको पढ़े उसको ही सुखकारी है ।
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जो जि सत्थं सेवदि, पंडियमाणी फलं समीहंतो । साहम्मियपडिकूलो, सत्थं पि विसं हवे तस्स ॥४६१॥
अन्वयार्थः– [ जो जिणसत्थं सेवदि फलं समीहंतो ] जो पुरुष जिनशास्त्र तो पढ़ता है और अपनी पूजा लाभ और सत्कारको चाहता है [ साहम्मियपडिकूलो ] तथा
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