Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 232
________________ द्वादश तप २१३ भावार्थः—तत्त्वार्थसूत्रमें प्रायश्चित्तके नो भेद कहे हैं - १ आलोचन, २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप, ७ छेद, ८ परिहार, ६ उपस्थापना | दोषका यथावत् कहना आलोचना है । दोषका मिथ्या कराना प्रतिक्रमण है । आलोचन प्रतिक्रमण दोनों कराना तदुभय है । आगामी त्याग कराना विवेक है । कायोत्सर्ग कराना व्युत्सर्ग है । अनशनादि तप कराना तप है । दीक्षा छेदन - बहुत दिन दीक्षितको थोड़े दिनका करना छेद है । संघके बाहर करना परिहार है । फिरसे नवीन दीक्षा देना उपस्थापना है । इनके भी अनेक भेद हैं । इसलिये देश, काल, अवस्था, सामर्थ्य, दोषका विधान देखकर यथाविधि आचार्य प्रायश्चित्त देते हैं उसको श्रद्धासे स्वीकार करे, उसमें संशय न करे । पुरवि काउं च्छदि, तं दोसं जइ वि जाइ सयखंडं । एवं णिच्चयसहिदो, पायच्छित्तं तवो होदि ॥ ४५२ ॥ अन्वयार्थः - [ पुणरवि तं दोसं काउ च्छदि जइ वि सयखंडं जाइ ] लगे हुए दोषका प्रायश्चित्त लेकर उस दोषको करना न चाहे, यदि अपने सौ टुकड़े भी हो जाँय तो भी न करे [ एवं णिच्चयसहिदो पायच्छिरां तवो होदि ] ऐसे निश्चयसहित प्रायश्चित्त नामक तप होता है । भावार्थ:- ऐसा दृढ़चित्त करे कि अपने शरीर के सौ टुकड़े भी हो जांय तो भी लगे हुए दोषको फिर न लगावे सो प्रायश्चित्त तप है । जो चिंत अप्पा, पाणसरूवं पुणो पुणो गाणी | विकहादिविरत्तमणो, पायच्छित्तं वरं तस्स ॥ ४५३ ॥ - अन्वयार्थः – [ जो णाणी अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो चिंता ] जो ज्ञानी मुनि आत्माको ज्ञानस्वरूप बारम्बार चितवन करता है [ विकहादिविरत्तमणो ] और विकथादिक प्रमादों से विरक्त होता हुआ ज्ञान ही का निरन्तर सेवन करता है [ तस्स वरं पायच्छिi ] उसके श्रेष्ठ प्रायश्चित्त होता है । भावार्थ: - निश्चय प्रायश्चित्त यह है जिसमें सब प्रायश्चित्तके भेद गर्भित हैं। कि प्रमादसे रहित होकर अपना शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माका ध्यान करना जिससे सब पापों का प्रलय ( नाश ) होता है । इस तरह प्रायश्चित्त नामक अभ्यन्तर तपके भेदका वर्णन किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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