Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 230
________________ द्वादश तप २११ अन्वयार्थ : - [ जो तिविहं सयं दोसं ण करेदि अण्णं पि ण कारएदि ] जो मुनि मनवचनकायसे स्वयं दोष नहीं करता है, दूसरे से भी दोष नहीं कराता है और [ कुत्राणं पण इच्छदि ] करते हुएको भी अच्छा नहीं मानता है [ तस्प परा विसोही होदि ] उसके उत्कृष्ट विशुद्धि होती है । भावार्थ:- यहाँ विशुद्धि नाम प्रायश्चित्तका है क्योंकि 'प्रायः' शब्दसे तो प्रकृष्ट चारित्रका ग्रहण है ऐसा चारित्र जिसके होता है सो 'प्रायः' कहिये साधु लोक ; उसका चित्त जिस कार्य में होता है उसको प्रायश्चित्त कहते हैं इसलिये जो आत्माकी विशुद्धि करता है सो प्रायश्चित्त है । दूसरा अर्थ ऐसा भी है कि प्रायः नाम अपराधका है उसका चित्त कहिये शुद्ध करना सो प्रायश्चित्त कहलाता है । इस तरह पहिले किये हुए अपराधोंकी शुद्धता जिससे होती है सो प्रायश्चित्त है । ऐसे जो मुनि मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनासे दोष नहीं लगाता है उसके उत्कृष्ट विशुद्धता होती है । यही प्रायश्चित x नामका तप है । अह कह वि पमादेण य, दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि । णिद्दोससाहुमूले, दसदोस विवज्जिदो होदु ॥ ४५० ॥ अन्वयार्थः – [ अह कह वि पमादेण य दोसो जदि एदि तं पि ] अथवा किसी प्रमादसे अपने चारित्रमें दोष आया हो तो उसको [ णिदोससाहुमूले दसदोस विवज्जिदो होढुं पयडेदि ] निर्दोष आचार्य के पास दस दोषोंसे रहित होकर प्रकट करे, आलोचना करे | भावार्थ:- अपने चारित्र में दोष प्रमादसे लग गया हो तो आचार्य के पास जाकर दसदोषरहित आलोचना करे | +प्रमाद - ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, ४ कषाय, ४ विकथा, १ स्नेह ये पाँच इनके पन्द्रह भेद हैं । भगोंकी अपेक्षा बहुत भेद होते हैं Jain Education International X यत्याचारोक्त ं दशप्रकारं प्रायश्चित्तं । मूलाचार-पंचाचार तवछदा मूलं पिय, आलोय पडिकमणं, उभय विवेगो तहा विओसग्गो । परिहारारा चेव सद्दहणं ।। १६५ ।। इन्दिय णिद्दा तहेव पणओ य । + विकहा तहा कषाया, चउ चउ पण मेगेग, होदि पमादा हु पण्णरसा || गो० जी० ३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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