Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 231
________________ २१२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा उनसे दोष लगते हैं आलोचनाके दस दोष हैं-१ आकम्पित, २ अनुमानित, ३ बादर, ४ सूक्ष्म, ५ दृष्ट, ६ प्रच्छन्न, ७ शब्दाकुलित, ८ बहुजन, ९ अव्यक्त, १० तत्सेवो । आचार्यको उपकरणादि देकर, अपने प्रति करुणा उत्पन्न कर आलोचना करे कि ऐसा करनेसे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार करना आकम्पितदोष है । वचनहीसे आचार्योंकी बड़ाई आदि कर आलोचना करे, अभिप्राय ऐसा रक्खे कि आचार्य मुझसे प्रसन्न रहेंगे तो थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, यह अनुमानितदोष है। प्रत्यक्ष दृष्टिदोष हो सो कहे, अदृष्ट न कहे यह दृष्टदोष है । स्थूल ( बड़ा ) दोष तो कहे सूक्ष्म न कहे सो वादरदोष है । सूक्ष्म दोष ही कहे, वादर न कहे यह बतावे कि इसने सूक्ष्म ही कह दिया सो वादर क्यों छिपाता यह सूक्ष्मदोष है । छिपाकर ही कहे, कोई दूसरा अपना दोष कहे तब कहे कि ऐसा ही दोष मेरे लगा है उसका नाम प्रगट न करे सो प्रच्छन्नदोष है । बहुत शब्दके कोलाहल में दोष कहे, अभिप्राय ऐसा रक्खे कि कोई और न सुने सो शब्दाकुलितदोष है । एक गुरुके पास आलोचना कर फिर अन्यगुरुके पास आलोचना करे अभिप्राय ऐसा रक्खे कि इसका प्रायश्चित्त अन्य गुरु क्या बतावें सो बहुजनदोष है । जो दोष व्यक्त हो सो कहे, अभिप्राय ऐसा रक्खे कि यह दोष छिपानेसे नहीं छिपेगा अतः कहना ही चाहिये सो अव्यक्तदोष है । अन्य मुनिको लगे हुए दोष की गुरुके पास आलोचना कर प्रायश्चित्त लिए हुए देखकर उसके समान अपनेको दोष लगा हो तो उसको प्रगट न करनेके अभिप्रायसे उसकी आलोचना गुरुके पास न करे आप ही प्रायश्चित्त ले लेवे सो तत्सेवीदोष है । इस तरह दस दोषरहित सरलचित्त होकर बालकके समान आलोचना करे ।। जं कि पि तेण दिएणं, तं सव्वं सो करेदि सद्धाए । णो पुण हियए संकदि, किं थोवं किं पि वहुयं वा ॥४५१॥ अन्वयार्थः-[जं किं पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो सद्धाए करेदि ] दोषोंकी आलोचना करनेके बादमें जो कुछ आचार्यने प्रायश्चित्त दिया हो उस सबही को श्रद्धापूर्वक करे [ पुण हियए णो संकदि किं थोवं किमु वहुयं वा ] और हृदयमें ऐसी शंका न करे कि यह प्रायश्चित्त दिया सो थोड़ा है या बहुत है। : आकम्पिय अणुमाणिय, जं दिट्ठ वादर च सुहमं च। छण्णं सद्दाउलियं, बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ ( भगवती आरा० पृ० २५७ तथा मूला० भा० २ शीलगुणाधिकार गा० १५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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