Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 224
________________ द्वादश तप २०५ द्वादश तप अब धर्मानुप्रेक्षाकी चूलिकाको कहते हुए आचार्य बारह प्रकार तपके विधान का निरूपण करते हैं बारसभेप्रो भणिो , णिज्जरहेऊ तवो समासेण । तस्स पयारा एदे, भणिज्जमाणा मुणेयव्वा ॥४३६॥ अन्वयार्थः-[णिजरहेऊ तवो बारसभेओ समासेण भणिओ ] कर्म निर्जराका कारण तप बारह प्रकारका संक्षेपसे जिनागममें कहा गया है [ तस्स पयारा एदे भणिजमाणा मुणेयव्या ] उसके भेद जो अब कहेंगे सो जानना चाहिये । भावार्थ:-निर्जराका कारण तप है, यह बारह प्रकार है । अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकारका अन्तरंग तप है । इनका व्याख्यान अब करेंगे। पहिले अनशन तपको चार गाथाओंसे कहते हैंउसमणं अक्खाणं, उववासो वरिणदो मुर्णिदेहि । तम्हा भुजुता वि य जिदिदिया होंति उववासा ॥४३७॥ अन्वयार्थः-[मुणिंदेहि अक्खाणं उवसमण उववासा वण्णिदो ] मुनीन्द्रोंने संक्षेपमें इन्द्रियोंको विषयों में न जाने देनेको, मनको अपने आत्मस्वरूपमें लगानेको उपवास कहा है [ तम्हा जिदिदिया मुंजता वि य उववासा होंति ] इसलिये जितेन्द्रिय आहार करते हुए भी उपवास सहित हो होते हैं । भावार्थ:-~-इन्द्रियोंको जीतना उपवास है इसलिये यतिगण भोजन करते हुए भी उपवास सहित ही हैं क्योंकि वे इन्द्रियोंको वश में कर प्रवर्तते हैं । जो मणइंदियविजई, इहभवपरलोयसोकावणिरवेक्खो । अप्पाणे विय णिवसइ, सज्झायपरायणो होदि ॥४३८।। कम्माणणिज्जर8, आहारं परिहरेइ लीलाए । एगदिणादिपमाणं, तस्स तवं अणसणं होदि ॥४३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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