Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 222
________________ धर्मानुप्रेक्षा २०३ अन्वयार्थः-[ जीवस्स सुधम्मादो] इस जीवके उत्तमधर्मके प्रभावसे [ अग्गी वि य हिमं होदि ] अग्नि तो हिम ( शीतल पाला ) हो जाती है [ भुयंगो वि उत्तम रयणं होदि ] सांप भी उत्तम रत्नोंकी माला हो जाता है [ देवा वि य किंकरा होति ] देव भी किंकर हो जाते हैं । उक्त च गाथातिक्खं खग्गं माला, दुज्जयरिउणो सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पि अमिय, महापया संपया होदि ॥१॥ अन्वयार्थः- [ तिक्खं खग्गं माला ] उत्तम धर्मसहित जीवके तीक्ष्ण खड्ग फूलमाला हो जाती है [ दुजयरिउणो सुहंकरा सुयणा ] दुर्जय शत्रु भी सुख देनेवाला मित्र हो जाता है [ हालाहलं पि अमियं ] हालाहल विष भी अमृत हो जाता है [ महापया संपया होदि ] अधिक कहाँ तक कहें बड़ी आपत्ति भी सम्पत्ति हो जाती है । अलियवयणं पि सच्चं, उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती । धम्मपहावेण गरो, अणो वि सुहंकरो होदि ॥४३२॥ अन्वयार्थः-[ धम्मपहावेण णरो] धर्मके प्रभावसे जीवके [ अलियवयणं पि सच्चं ] झूठ वचन भी सत्य वचन हो जाते हैं [ उजमरहिए वि लच्छिसंपत्ती ] उद्यम रहितको भी लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाती है [ अणओ वि सुहंकरो होदि ] और अन्यान्य कार्य भी सुखके करनेवाले हो जाते हैं । भावार्थ:-यहाँ ऐसा अर्थ समझना चाहिये कि यदि पहिले धर्मसेवन किया हो तो उसके प्रभावसे यहाँ झूठ बोले सो भी सच हो जाय, उद्यम बिना भो संपत्ति मिल जाय, अन्यायरूप प्रवृत्ति करे तो भी सुखी रहे । अब धर्मरहित जीवकी निन्दा करते हैं देवो वि धम्मचत्तो, मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि । चक्की वि धम्मरहिमओ, शिवडइ, णरए ण संदेहो ॥४३३॥ अन्वयार्थ:- [धम्मचत्तो मिच्छत्तवसेण देवो वि तरुवरो होदि ] धर्मरहित मिथ्यात्वके वशसे देव भी वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव हो जाता है [ धम्मरहिओ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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