________________
२०४
कार्तिकेयानुप्रेक्षा चक्की वि णरए णिवडइ ] धर्मरहित चक्रवर्ती भी नरक में जा पड़ता है [ ण संदेहो ] संपत्ति की प्राप्ति नहीं होती उसमें भी कोई सन्देह नहीं है ।
धम्मविहीणो जीवो, कुणइ असक्कं पि साहसं जइ वि । तो ण वि पाव दि इ8, सुठु अणि? परं लहदि ॥४३४॥
अन्वयार्थ:-[ धम्मविहीणो जीवो जइ वि असक साहसं पि कुणइ ] धर्मरहित जीव यद्यपि बड़ा असह्य साहस ( पराक्रम ) भी करता है [ तो इ8 सुठु ण वि पावदि ] तो भी उसको इष्ट वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती है [ परं अणिटुं लहदि ] केवल उल्टी उत्कट अनिष्टकी प्राप्ति होती है । भावार्थ:-पापके उदयसे अच्छा करते हुए भी बुरा होता है यह जगत्प्रसिद्ध है।
इय पञ्चक्खं पेच्छह धम्माहम्माण विविहमाहप्पं ।
धम्मं आयरह सया, पावं दूरेण परिहरह ॥४३५॥
अन्वयार्थः-[ इय धम्माहम्माण विविहमाहप्पं पञ्चक्खं पेच्छह ] हे प्राणियों ! इस प्रकारसे धर्म और अधर्मका अनेक प्रकारका माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर [ सया धम्म आयरह ] तुम सदा धर्मका आदर करो [पावं दूरेण परिहरह ] और पापको दूर ही से छोड़ो।
भावार्थ:-आचार्यने दसप्रकारके धर्मका स्वरूप कहकर अधर्मका फल दिखाया । यहाँ यह उपदेश दिया है कि प्राणियों ! प्रत्यक्ष धर्म अधर्मका फल लोकमें देखकर धर्मका आदर (पालन) करो और पापका त्याग करो। आचार्य बड़े उपकारी हैं अकारण ही जिनको कुछ चाह नहीं है निस्पृह होते हुए जीवोंके कल्याण ही के लिये बारबार कहकर प्राणियोंको चेत ( ज्ञान ) कराते हैं, ऐसे श्रीगुरु वन्दने पूजने योग्य हैं । ऐसे यतिधर्मका वर्णन किया।
दोहा। मुनिश्रावकके भेदतें, धर्म दोय परकार । ताकू सुनिचितवो सतत, गहि पावौ भवपार ।।१२।।
इति धर्मानुप्रेक्षा समाप्ता ।।१२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org