________________
२०६
कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[जो मणइंदियविजई ] जो मन और इन्द्रियों को जीतनेवाला है [ इहभवपरलोयसोक्खणिरवेक्खो ] इस भव और परभवके विषयसुखोंमें अपेक्षा रहित है, वांछा नहीं करता है [ अप्पाणे विय णिवसइ ] अपने आत्मस्वरूप में ही रहता है [ सज्झायपरायणो होदि ] तथा स्वाध्यायमें तत्पर है [ एगदिणादिपमाणं ] और एक दिनकी मर्यादासे [ कम्माण णिजर8 ] कर्मोंकी निर्जराके लिये [लीलाए आहारं परिहरेइ] लीलामात्र ही क्लेशरहित हर्षसे आहारको छोड़ता है [ तस्स अणसणं तवं होदि ] उसके अनशन तप होता है।
भावार्थ:-इन्द्रिय और मन विषयोंमें प्रवृत्तिसे रहित होकर आत्मामें वसे ( निवास करें ) वह उपवास है। इन्द्रियोंको जीतना, इसलोक परलोक सम्बन्धी विषयोंकी वांछा न करना, या तो आत्मस्वरूपमें लीन रहना, या शास्त्रके अभ्यास स्वाध्यायमें मन लगाना उपवासमें ये कार्य प्रधान हैं और क्लेश उत्पन्न न हो जैसे क्रीडामात्र, एक दिनकी मर्यादारूप आहारका त्याग करना सो उपवास है । ऐसे उपवास नामक अनशन तप होता है।
उववासं कुव्वाणो, आरंभं जो करेदि मोहादो। तस्स किलेसो अवरं, कम्माणं णेव णिज्जरणं ॥४४०॥
अन्वयार्थ:-[ जो उबवासं कुव्वाणो मोहादो आरंभं करेदि ] जो उपवास करता हुआ मोहसे आरम्भ ( गृहकार्यादि ) को करता है [ तस्स अवरं किलेसो ] उसके पहिले तो गृहकार्यका क्लेश था ही और दूसरा भोजनके बिना क्षुधा तृषाका और क्लेश हो गया [ कम्माण णिजरणं णेव ] कर्मोंका निर्जरण तो नहीं हुआ।
भावार्थ:-आहारको तो छोड़े और विषय कषाय आरम्भको न छोड़े उसके पहिले तो क्लेश था ही और दूसरा क्लेश भूख प्यासका और हो गया ऐसे उपवासमें कर्मकी निर्जरा कैसे हो ? कर्मकी निर्जरा तो सब क्लेश छोड़कर साम्यभाव करनेसे होती है।
अब अवमोदर्य तपको दो गाथाओंसे कहते हैं
आहारगिद्धिरहिओ, चरियामग्गेण पासुगं जोग्गं । अप्पयरं जो भुञ्जइ, अवमोदरियं तवं तस्स ॥४४१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org