Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 219
________________ २०० कार्तिकेयानुप्रेक्षा और प्रभावना गुण भी उसीके होता है। जिसके इन्द्रियसुखकी वांछा हो उसके नि:कांक्षित गुण नहीं होता है, इन्द्रियसुखकी वांछासे रहित होने पर ही निःकांक्षित मुण होता है। ऐसे आठ गुण संभव होनेके तीन विशेषण हैं। अब यह कहते हैं कि ये आठ गुण जैसे धर्म में कहे वैसे देव गुरु आदिके लिये भी जानने हिस्संकापहुडिगुणा, जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे । जाणेहि जिणमयादो, सम्मत्तविसोहया एदे ॥४२४॥ अन्वयार्थ:-[णिस्संकापहुडिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे ] ये निःशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्ममें प्रगट होते कहे गये हैं वैसे ही देवके स्वरूपमें तथा गुरुके स्वरूपमें और षडद्रव्य पंचास्तिकाय सप्त तत्त्व नव पदार्थों के स्वरूप में होते हैं [ जिणमयादो जाणेहि ] इनको प्रवचन सिद्धान्तसे जानना चाहिये [एदे सम्मतविसोहया] ये आठ गुण सम्यक्त्वको निरतिचार विशुद्ध करनेवाले हैं । भावार्थ:-देव गुरु तत्त्वमें शंका न करना, इनकी यथार्थ श्रद्धासे इन्द्रियसुखकी वांछारूप कांक्षा न करना, इनमें ग्लानि न लाना, इनमें मूढदृष्टि न रखना, इनके दोषोंका अभाव करना तथा उनको छिपाना, इनका श्रद्धान दृढ़ करना, इनमें वात्सल्य विशेष अनुराग करना, इनकी महिमा प्रगट करना ऐसे आठ गुण इनमें जानना चाहिये । इनकी कथाएँ पहिले जो सम्यग्दृष्टि हुए हैं उनको जैन शास्त्रोंसे जानना । ये आठों गुण सम्यक्त्वके अतिचार दूर कर उसको निर्मल करनेवाले हैं। अब इस धर्मको करनेवाला तथा जाननेवाला दुर्लभ है ऐसा कहते हैंधम्मं ण मुणदि जीवो, अहवा जाणेइ कह व कट्ठण । काउं तो वि ण सक्कदि, मोहपिसाएण भोलविदो ॥४२५॥ अन्वयार्थ:-[ जीवो धम्म ण मुणदि ] इस संसार में पहिले तो जीव धर्मको जानता ही नहीं है [ अहवा कह ब कढण जाणेइ ] अथवा किसी बड़े कष्टसे जान भी जाता है तो [ मोहपिसाएण भोलविदो ] मोह पिशाचसे भ्रमित किया हुआ [ का तो वि ण सकदि ] करनेको समर्थ नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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