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धर्मानुप्रेक्षा
१७७ पहिले भेदवाला (क्षुल्लक ) तो एक वस्त्र रखता है, बालोंको कैंची या उस्तरेसे कटाता है, प्रतिलेखन हस्तादिकसे करता है, भोजन बैठकर, अपने हाथसे भी तथा पात्रमें भी करता है । दूसरा ( ऐलक ) बालोंका लोंच करता है, प्रतिलेखन पीछेसे करता है, अपने हाथही में भोजन करता है, कोपोन ( लँगोट ) धारण करता है, इत्यादि इसको विधि अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिये । ऐसे प्रतिमा तो ग्यारहवीं हुई और बारह भेद कहे थे उनमें यह बारहवाँ भेद श्रावकका हुआ ।
अब यहाँ संस्कृत टीकाकारने अन्य ग्रन्थों के अनुसार कुछ श्रावकका कथन लिखा है वह भी संक्षेपसे लिखा जाता है । छठी प्रतिमा तक तो जघन्य श्रावक कहा है । सातवीं, आठवी, नवमी प्रतिमाके धारकको मध्यम श्रावक कहा है और दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमावालेको उत्कृष्ट श्रावक कहा है और कहा है कि जो समिति सहित प्रवृत्ति करे तो अणुव्रत सफल है और समितिरहित प्रवृत्ति करे तो व्रत पालते हुए भी अव्रती है । जो गृहस्थके असि मसि कृषि वाणिज्यके आरम्भमें त्रस स्थावरकी हिंसा होती है सो त्रसहिंसाका त्याग इसके कैसे बनता है ? इसके समाधानके लिये कहते हैं
पक्ष, चर्या, साधकता तीन प्रवृत्तियाँ श्रावककी कही गई हैं। पक्षका धारक तो पाक्षिक श्रावक कहलाता है, चर्याका धारक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और साधकताका धारक साधक श्रावक कहलाता है । पक्ष तो ऐसा-जो मार्गमें त्रसहिंसाका त्यागी श्रावक कहा गया है सो मैं त्रसजीवोंको मेरे प्रयोजनके लिये तथा दूसरेके प्रयोजनके लिये नहीं मारू । धर्मके लिये, देवता के लिये, मन्त्र साधनके लिये, औषधि लिये, आहारके लिये और अन्य भोगके लिये नहीं मारू ऐसा पक्ष जिसके होता है सो पाक्षिक है । इसलिये इसके असि मसि कृषि वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है तो भी मारनेका अभिमत नहीं है । कार्यका अभिप्राय है, वहाँ घात होता है उसकी अपनी निन्दा करता है इस तरह त्रसहिंसा न करनेकी पक्षमात्रसे पाक्षिक कहलाता है। ये अप्रत्याख्यानावरण कषायके मन्द उदयके परिणाम हैं इसलिये अवती ही है । व्रत पालनेकी इच्छा है परन्तु निरतिचार व्रतोंका पालन नहीं होता इसलिये पाक्षिक ही कहलाता है।
__नैष्ठिक होता है तब अनुक्रमसे प्रतिमाकी प्रतिज्ञाका पालन होता है। इसके अप्रत्याख्यानावरण कषायका अभाव होनेसे पांचवें गुणस्थानकी प्रतिज्ञाका निरतिचार
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