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कार्तिकेयानुप्रेक्षा भवितव्य है वैसा होगा यदि आहार मिलना है तो मिलकर रहेगा' ऐसे परिणाम रहनेसे अनुमतित्याग प्रतिमाका पालन होता है । ऐसे बारह भेदोंमें ग्यारहवें भेदका वर्णन किया।
अब उद्दिष्टविरतिप्रतिमाका स्वरूप कहते हैंजो णव कोडिविसुद्ध, भिक्खायरणेण भुजदे भोज्जं । जायणरहियं जोग्गं, उद्दिट्ठाहारविरदो सो ॥३६०।।
अन्वयार्थः-[ जो ] जो श्रावक [णव कोडि विशुद्ध ] नव कोटि विशुद्ध ( मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाके दोष रहित ) [ भिक्खायरणेण ] भिक्षाचरणपूर्वक [ जायणरहियं ] याचना रहित ( बिना माँगे ) [ जोग्गं ] योग्य ( सचित्तादिक अयोग्य न हो ) [ भोज्ज भुजदे ] आहारको ग्रहण करता है [ सो उद्दिट्ठाहारविरदो ] वह उद्दिष्ट आहारका त्यागी है।
भावार्थ:-घर छोड़कर मठ या मंडप में रहता है, भिक्षा-द्वारा आहार लेता है, जो इसके निमित्त कोई आहार बनावे तो उस आहारको नहीं लेता है, माँग कर नहीं लेता है, अयोग्य मांसादिक तथा सचित्त आहार नहीं लेता है, ऐसा उद्दिष्टविरत श्रावक होता है।
अब अंत समय में श्रावक आराधना करै ऐसा कहते हैंजो सावयवयसुद्धो, अंते आराहणं परं कुणदि ।
सो अच्चुदम्मि सग्गे, इन्दो सुरसेविदो होदि ॥३६१॥
अन्वयार्थः- [ जो सावयवयसुद्धो ] जो श्रावक व्रतोंसे शुद्ध है [ अंते आराहणं परं कुणदि ] और अंतसमय में उत्कृष्ट आराधना (दर्शन ज्ञान चारित्र तपका आराधन) करता है [ सो अच्चुदम्मि सग्गे ] वह अच्युत स्वर्गमें [ सुरसेविदो इन्दो होदि ] देवोंसे सेवनीय इन्द्र होता है।
____ भावार्थः-जो सम्यग्दृष्टि श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमाका निरतिचार शुद्ध व्रत पालता है और अंत समय ( मरणकाल ) में दर्शन ज्ञान चरित्र तप आराधनाको आराधता है वह अच्युन स्वर्गमें इन्द्र होता है । यह उत्कृष्ट श्रावकके व्रतका उत्कृष्ट फल है । ऐसे ग्यारहवीं प्रति माका स्वरूप कहा । अन्य ग्रन्थों में इसके दो भेद कहे हैं
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