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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो जीवरक्खणपरो] जो मुनि जीवोंकी रक्षामें तत्पर होता हुआ [ गमणागमणादिसबकज्जेसु ] गमन आगमन आदि सब कार्यों में [ तणछेदं पिण इच्छदि ] तृणका छेदमात्र भो नहीं चाहता है, नहीं करता है [ तस्य संजयधम्मो हवे ] उस मुनिके संयमधर्म होता है।
भावार्थ:-संयम दो प्रकारका कहा गया है-इन्द्रिय मनका वश करना और छहकायके जीवोंकी रक्षा करना । सो यहाँ मुनिके आहार विहार करने में गमन आगमन आदिका काम पड़ता है तो उन कार्यों में ऐसे परिणाम रहते हैं कि मैं तृणमात्रका भी छेद नहीं करूं, मेरे निमित्तमे किसीका अहित न हो, ऐसे यत्नरूप प्रवर्तता है, जीवदयामें ही तत्पर रहता है। यहाँ टीकाकारने अन्य ग्रन्थोंसे संयमका विशेष वर्णन किया है, उसका संक्षेप-संयम दो प्रकारका है १ उपेक्षा संयम २ अपहृत संयम । जो स्वभाव ही से रागद्वषको छोड़कर गुप्ति धर्म में कायोत्सर्ग ध्यान द्वारा स्थिर हो वहाँ उसके उपेक्षा संयम है, उपेक्षाका अर्थ उदासीनता या वीतरागता है । अपहृत संयमके तीन भेद हैं-उत्कृष्ट मध्यम जघन्य । चलते या बैठते समय जो जीव दिखाई दे उससे आप बच जाय जीवको नहीं हटावे सो उत्कृष्ट है, कोमल मयूरपंखकी पीछीसे जीवको हटाना सो मध्यम है और अन्य तृणादिकसे हटाना सो जघन्य है । यहाँ अपहृत-संयमीको पंच समितिका उपदेश है । आहार बिहारके लिये गमन करे सो प्रासुक मार्ग देख जूड़ा प्रमाण ( चार हाथ ) भूमिको देखते हुए मन्द मन्द अति यत्नसे गमन करना सो ईर्यासमिति है । धर्मोपदेश आदिके निमित्त वचन कहे सो हितरूप मर्यादापूर्वक सन्देह रहित स्पष्ट अक्षररूप वचन कहे, बहु प्रलाप आदि वचनके दोष हैं उनसे रहित बोले सो भाषासमिति है । कायकी स्थितिके लिये आहार करे सो मन-वचन-काय कृत कारित अनुमोदनाके दोष जिसमें नहीं लगें, ऐसा दूसरेसे दिया हुआ, छियालीस दोष बत्तीस अन्तराय टाल कर चौदह मल रहित अपने हाथमें खड़े होकर अति यत्नसे शुद्ध आहार करना सो एषणा समिति है । धर्मके उपकरणोंको अति-यत्नसे भूमिको देख कर उठाना धरना सो आदाननिक्षेपण समिति है । अंगके मल मूत्रादिकको, त्रस स्थावर जीवोंको देख, टाल ( बचा ) कर यत्नपूर्वक क्षेपण करना सो प्रतिष्ठापना समिति है, ऐसे पांच समिति पाले उसके संयमका पालन होता है क्योंकि ऐसा कहा है कि जो यत्नाचारसे प्रवर्तता है उसके बाह्यमें जीवको बाधा होने पर भी बंध नहीं है और यत्नहित प्रवृत्ति करता है उसके बाह्यमें जीव मरे या न मरे बंध अवश्य होता है । अपहृत संयमके
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