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धर्मानुप्रेक्षा भावार्थ:-पुण्यसे सुगति होती है इसलिये जिसने पुण्यको चाहा उसने संसार ही को चाहा क्योंकि सुगति है सो संसार ही हैं । मोक्ष तो पुण्यका भी नाश होने पर होता है इसलिये मोक्षार्थीको पुण्यकी वांछा करना योग्य नहीं है ।
जो अहिलसेदि पुण्णं, सकसाओ विसयलोक्खतबहाए । दूरे तस्स विसोही, विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ॥४१०॥
अन्वयार्थः-[ जो सकसामो विसयसोक्खतण्हाए पुण्णं अहिलसेदि ] जो कषाय सहित होता हुआ विषयसुखको तृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है [ तस्स विसोही दूरे ] उसके ( मन्दकषायके अभावके कारण ) विशुद्धता दूर है [ पुण्णाणि विसोहिमूलाणि ] और विशुद्धता है मूल कारण जिसका ऐसा पुण्यकर्म है।
भावार्थ:-विषयोंकी तृष्णासे पुण्यको चाहना तीव्र कषाय है । पुण्यका बन्ध मन्दकषायरूप विशुद्धतासे होता है इसलिये जो पुण्य चाहता है उसके आगामी पुण्यबन्ध भी नहीं होता है, निदानमात्र फल हो तो हो ।
पुण्णासाए ण पुण्णं, जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती । इय जाणिऊण, जइणो, पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥४११॥
अन्वयार्थः-[ जदो पुण्णासाए पुण्णं ण ] क्योंकि पुण्यकी वांछासे तो पुण्यबन्ध होता नहीं है [ णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती ] और वांछारहित पुरुषके पुण्यका बन्ध होता [जइणो इय जाणिऊण] इसलिये भो हे यतीश्वरो ! ऐमा जानकर [ पुण्णे वि म आयरं कुणह ] पुण्यमें भी आदर ( वांछा ) मत करो।
भावार्थ:- यहाँ मुनिराजको उपदेश है कि पुण्य की वांछासे पुण्यबन्ध नहीं होता है आशा मिटने पर होता है इसलिये आशा पुण्यकी भी मत करो, अपने स्वरूपकी प्राप्तिकी आशा करो।
पुण्णं बंधदि जीवो, मंदकसाएहि परिणदो संतो। तम्हा मंदकसाया, हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा ॥४१२॥
अन्वयार्थः-[ जीवो मंदकसाएहि परिणदो संतो पुण्णं बंधदि ] जीव मन्दकषायरूप परिणमता हुआ पुण्यबन्ध करता है [ तमा पुण्णस्स हेऊ मंदकसाया ]
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