Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 216
________________ धर्मानुप्रेक्षा १९७ अन्वयार्थः-[जो ] जो [ भयलजालाहादो हिसारंभो धम्मो ण मण्णदे 1 भय, लज्जा और लाभसे हिंसाके आरम्भको धर्म नहीं मानता है [जिणक्यणे लीणो ] और जिनवचनोंमें लीन है, भगवानने धर्म अहिंसा हो कहा है ऐसी दृढ़ श्रद्धा युक्त है [ सो दु अमूढदिट्ठी हवे ] वह पुरुष अमूढदृष्टिगुण संयुक्त है । भावार्थ:-अन्यमतवाले यज्ञादिक हिंसामें धर्म मानते हैं उसको राजाके भयसे, किसी व्यन्तरके भयसे, लोकलाजसे और कुछ धनादिकके लाभसे इत्यादि अनेक कारणोंसे धर्म न माने ऐसी श्रद्धा रखे कि धर्म तो भगवानने अहिंसा ही कहा है सो अमूढ़दृष्टि गुण है । यहाँ हिंसारभके कहने में हिंसाके प्ररूपक देव शास्त्र गुरु आदिमें भी मूढदृष्टि नहीं होता है । ऐसा जानना । अब उपगृहनगुणको कहते हैंजो परदोसं गोवदि, णियसुकयं जो ण पयासदे लोए। भवियव्वभावणरओ, उवगृहणकारओ सो हु ॥४१८॥ अन्वयार्थः- [ जो परदोसं गोवदि ] जो सम्यग्दृष्टि दूसरेके दोषोंको छिपाता है । [णियसुकयं लोए जो ण पयासदे ] अपने सुकृत ( पुण्य ) को लोकमें प्रकाशित नहीं करता फिरता है [ भवियव्वभावणरओ ] ऐसी भावनामें लीन रहता है कि जो भवितव्य है सो होता है तथा होगा [ सो हु उवगृहणकारओ ] सो उपगूहन गुण करनेवाला है। भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिके ऐसी भावना रहती है कि कर्मके उदयके अनुसार मेरी लोकमें प्रवृत्ति है सो होनी है सो होती है, ऐसी भावनासे अपने गुणोंको प्रकाशित नहीं करता फिरता है, दूसरों के दोष प्रगट नहीं करता है, साधर्मी जन तथा पूज्य पुरुषों में किसी कर्मके उदयसे दोष लगे तो उसको छिपावे, उपदेशादिसे दोषको छुड़ावे, ऐसा न करे जिससे उनकी निन्दा हो, धर्मको निन्दा हो, धर्म धर्मात्मामेंसे दोषका अभाव करना है सो दोषका छिपाना भी अभाव ही करना है क्योंकि जिसको लोग न जाने सो अभाव तुल्य ही है, ऐसे उपगूहन गुण होता है। अब स्थितिकरण गुणको कहते हैंधम्मादो चलमाणं, जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अप्पाणं सुदिढयदि, ठिदिकरणं होदि तस्सेव ॥४१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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