Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 209
________________ १६० कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-जहाँ हिंसा हो और उसको कोई अन्यमती धर्म मानता हो तो उसको धर्म नहीं कहते हैं । यह दस लक्षण स्वरूप धर्म कहा है सो ही धर्म नियमसे है। इस गाथामें कहा है कि जहाँ सूक्ष्म भी हिंसा पाई जाय सो धर्म नहीं है इसी अर्थको अब स्पष्ट कहते हैं हिंसारंभो ण सुहो, देवणिमित्तं गुरूण कज्जेसु । हिंसा पावं ति मदो, दयापहाणो जदो धम्मो ॥४०५॥ अन्वयार्थः-[ हिंसा पावं ति मदो जदो धम्मो दयापहाणो ] जिससे हिंसा हो वह पाप है, धर्म है सो दयाप्रधान है ऐसा कहा गया है [ देवणिमित्तं गुरूण कज्जेसु हिसारंभो सुहो ण ] इसलिये देवके निमित्त तथा गुरुके कायके निमित्त हिंसा आरम्भ शुभ नहीं है। .... भावार्थ:-अन्यमती हिंसामें धर्म मानते हैं। मीमांसक तो यज्ञ करते हैं उसमें पशुओंको होमते हैं और उसका फल शुभ कहते हैं । देवी और भैरों ( भैरव) के उपासक बकरे आदि मार कर देवी और भैरोंके चढ़ाते हैं और उसका शुभ फल मानते हैं । बौद्ध मती हिंसा सहित मांसादिक आहारको शुभ कहते हैं । श्वेताम्बरोंके कई सूत्रों में ऐसा कहा है कि देव गुरु धर्म के निमित्त चक्रवर्तीको सेनाका नाश कर देना चाहिये, जो साधु ऐसा नहीं करता है वो अनन्तसंसारी होता है, कहीं मद्यमांसका आहार भी लिखा है । इन सबका निषेध इस गाथासे जानना चाहिये । जो देवगुरुके कार्यनिमित्त हिंसाका आरम्भ करता है सो शुभ नहीं है, धर्म तो दयाप्रधान ही है । पूजा, प्रतिष्ठा, चैत्यालयका निर्मापण, संघयात्रा तथा वसतिकाका निर्मापण ये गृहस्थोंके कार्य हैं इनको भी मुनि न आप करता है, न कराता है, अनुमोदना करता है। यह धर्म गृहस्थोंका है सो जैसे इनका सूत्र में विधान लिखा है वैसे गृहस्थ करता है । यदि गृहस्थ मुनि से इनके सम्बन्धमें प्रश्न करे तो मुनि उत्तर देवे कि जैन सिद्धान्त में गृहस्थका धर्म पूजा प्रतिष्ठा आदि लिखा है वैसे करो । ऐसा कहने में हिंसाका दोष तो गृहस्थके हो है। इसमें जो श्रद्धा, भक्ति धर्मकी प्रधानता हुई उस सम्बन्धो पुण्य हुआ उसके साथी मुनि भी हैं । हिंसा गृहस्थको है, उसके साथी नहीं है । गृहस्थ भी हिंसा करनेका अभिप्राय रक्खे ( करे ) तो अशुभ ही है । पूजा प्रतिष्ठा यत्नपूर्वक करता है, कार्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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