Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 193
________________ १७४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ जो आरंभं ण कुणदि ] जो श्रावक गृहकार्यसम्बन्धी कुछ भा आरम्भ नहीं करता है [ अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णे ] दूसरेसे भी नहीं कराता है, करते हुएको अच्छा भी नहीं मानता है [ हिंसासतट्ठमणो ] हिंसासे भयभीत मनवाला [ सो हु चतारंभो हवे ] वह निश्चयसे आरम्भका त्यागी होता है । भावार्थ:-जो गृहकार्य के आरम्भका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करता है वह आरम्भ त्यागप्रतिमाधारक श्रावक होता है । यह प्रतिमा आठवीं है और बारह भेदोंमें नवमाँ भेद है । अब परिग्रहत्याग प्रतिमाको कहते हैं जो परिवज्जइ गंथं, अभंतर बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो, णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥३८६॥ अन्वयार्थ:-[जो] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ अब्भंतर बाहिरं च गंथं ] अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकारके परिग्रहको [ पावं ति मण्णमाणो ] पापका कारण मानता हुआ [ साणंदो] आनन्द सहित [ परिवजइ ] छोड़ता है [ सो णिग्गंथो हवे ] वह परिग्रहका त्यागी श्रावक होता है। भावार्थः-अभ्यन्तर परिग्रहमें मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण कषाय तो पहिले ही छूट चुके हैं । अब प्रत्याख्यानावरण और उसहोके साथ लगे हुए हास्यादिक और वेदोंको घटाता है और बाह्यके धनधान्य आदि सबका त्याग करता है । परिग्रहके त्यागमें बड़ा आनन्द मानता है क्योंकि जिनको सच्चा वैराग्य हो जाता है उनको परिग्रह पापरूप और बड़ी आपत्तिरूप दिखाई देता है इसलिये त्याग करने में बड़ा सुख मानते हैं । बाहिरगंथविहीणा, दलिद्दमणुा सहावदो होति । अब्भतरगंथंपुण, ण सक्कदे को वि छंडेदु ॥३८७॥ अन्वयार्थः-[ बाहिरगंथविहीणा दलिद मणुआ सहावदो होंति ] बाह्य परिग्रहसे रहित तो दरिद्रो मनुष्य स्वभाव ही से होते हैं, इसके त्यागमें आश्चर्य नहीं है [अभंतरगंथं पुण ण सक्कदे को वि इंडेदं ] अभ्यन्तर परिग्रहको कोई भी छोड़ने में समर्थ नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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