Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 191
________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा जो वज्जेदि सचित्तं, दुज्जय जोहा विणिज्जिया ते । दयभावो होदि किओ, जिणवयां पालियं तेण ॥ ३८१ ॥ अन्वयार्थः – [ जो सचिशं वज्जेदि ] जो श्रावक सचित्तका त्याग करता है [ तेण दुज्जय जीहा विणिज्जिया ] उसने दुर्जय जिह्वा इन्द्रियको भी जीत ली तथा [ दयाभावो किओ होदि ] दयाभाव प्रगट किया [ तेण जिणवयणं पालियं ] और उसीने जिनदेव के वचनों का पालन किया । १७२ भावार्थ:- सचित्तके त्यागमें बड़े गुण हैं । जिह्वा इन्द्रियका जीतना होता है । प्राणियोंकी दयाका पालन होता है । भगवानके वचनों का पालन होता । क्योंकि हरित कायादिक सचित्तमें भगवानने जीव कहे हैं सो आज्ञाका पालन हुआ । इसके अतिचार सचित्तसे मिली वस्तु तथा सचित्त से सम्बन्धरूप इत्यादिक हैं । इन अतिचारों को नहीं लगावे तब शुद्व त्याग होता है, तब ही प्रतिमाको प्रतिज्ञाका पालन होता है । भोगोपभोग व्रतमें तथा देशावकाशिक व्रत में भी सचित्तका त्याग कहा है परन्तु निरतिचार नियमरूप नहीं है । इस प्रतिमा में नियमरूप निरतिचार त्याग होता है । ऐसे सचित्त त्याग पाँचवीं प्रतिमा और बारहभेदों में छट्ठ भेदका वर्णन किया । अब रात्रिभोजनत्याग प्रतिमाको कहते हैं जो चउविपि भोज्जं, रयणीए व भुजदे गाणी | भुंजावइ अरणं, णिसिविरम्रो सो हवे भोज्जो ||३८२ ॥ अन्वयार्थः – [ जो ] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ रयणीए ] रात्रि [ चउवि पि भोज्जं ] अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य चार प्रकारके आहारको [ णेव भुजदे ] नहीं भोगता है— नहीं खाता है [ अण्णं ण य भुंजावई ] दूसरे को भी भोजन नहीं कराता है [ सो णिसिविरओ भोजो हवे ] वह श्रावक रात्रिभोजनका त्यागी होता है । भावार्थ:- रात्रिभोजनका तो मांसके दोषकी अपेक्षा तथा रात्रिमें बहुत आरम्भसे त्रसघातको अपेक्षा पहिली दूसरी प्रतिमा में ही त्याग कराया गया है परन्तु वहाँ कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायके कुछ दोष लग जाते हैं इसलिये शुद्ध त्याग नहीं है । यहाँ इस प्रतिमाकी प्रतिज्ञामें शुद्ध त्याग होता है । इसलिये प्रतिमा कही गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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