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धर्मानुप्रेक्षा अब सचित्तत्याग प्रतिमाको कहते हैं
सच्चित्तं पत्तफलं, छल्लीमूलं च किसलयं बीयं ।
जो ण य भक्खदि णाणी, सचित्तविरदो हवे सो दु॥३७६॥
अन्वयार्थः- [ जो ] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ पत्तफलं छल्लीमूलं च किसलयं बीयं सच्चिर ] पत्र फल त्वक् छाल मूल कोंपल और बीज इन सचित्त वस्तुओंको [ण य भक्खदि ] नहीं खाता है [ सो दु सचित्तवरिदो हवे ] वह सचित्तविरत श्रावक होता है ।
भावार्थ:-जीवसहितको सचित्त कहते हैं । इसलिये जो पत्र फल छाल मूल बीज कोंपल इत्यादि हरी वनस्पति सचित्तको नहीं खाता है वह सचित्तविरत प्रतिमाका धारक श्रावक होता है * ।
जो ण य भक्खेदि सयं, तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं । भुत्तस्स भोजिदस्सहि, णत्थि विसेसो तदो को वि ॥३८०॥
अन्वयार्थः-[ जो सयं ण य भक्खेदि ] जिस वस्तुको आप नहीं खाता है [ तस्स अण्णस्स दाउण जज्जदे ] उसको अन्यको देना योग्य नहीं है [ भुत्तस्स भोजिदस्सहि ] क्योंकि खानेवाले और खिलानेवाले में [ तदो को वि विसेसो णत्थि ] कुछ विशेषता नहीं है।
भावार्थ:-कृत और कारितका फल समान है इसलिये जो वस्तु आप नहीं खाता है वह अन्यको भी नहीं खिलाता है तब सचित्त त्याग प्रतिमाका पालन होता है ।
* सुक्कं पक्कं तत्तं, अंविललवणेहि मिस्सियं दव्वं ।
जं जंतेण य छिण्णं, तं सव्वं फासुयं भणियं ॥१॥ अन्वयार्थ:-[ सुक्कं पक्कं तत्तं ] सूखा हुआ, पका हुआ, गरम किया हुआ [ अंविललवणेहि मिस्सियं दध्वं ] खटाई और नमकसे मिला हुआ [ जं जंतेण य छिण्णं ] तथा जो यन्त्रसे छिन्नभिन्न किया हुआ अर्थात् शोधा हुआ हो [ तं सव्वं फासुयं भणियं ] ऐसा सब हरितकाय प्रासुक (जीवरहितअचित्त ) होता है।
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