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धर्मानुप्रेक्षा भावार्थः-अन्तरंगका परिग्रह तो लोभ तृष्णा है उसको क्षीण करता है तथा बाह्य का परिग्रह परिमाण करता है और दृढ़चित्तसे प्रतिज्ञा भंग नहीं करता है वह अतिचार रहित पंचम अणुव्रती होता है इस तरह पांच अणुव्रतोंका निरतिचार पालन करता है वह व्रत प्रतिमाधारी श्रावक है, ऐसे पाँच अणुव्रतोंका वर्णन किया।
__ अब इन व्रतोंकी रक्षा करनेवाले सात शील हैं उनका वर्णन करेंगे । उनमें पहिले तीन गुण व्रत हैं उसमें पहिले गुणवतको कहते हैं ।
जह लोहणासण?, संगपमाणं हवेइ जीवस्स । सव्वं दिसिसु पमाणं, तह लोहं णासए णियमा ॥३४१॥ जं परिमाणं कीरदि, दिसाण सव्वाणं सुप्पसिद्धाणं । उवोगं जाणित्ता, गुणव्वदं जाण तं पढमं ।।३४२।।
अन्वयार्थः-[जह लोहणासणटुं जीवस्स संगपमाणं हवेइ ] जैसे लोभका नाश करनेके लिये जीवके परिग्रहका परिमाण होता है [ तह सव्वं दिसिसु पमाणं णियमा लोहं णासए ] वैसे ही सब दिशाओं में परिमाण किया हुआ भो नियमसे लोभका नाश करता है [ सव्वाण सुप्पसिद्धाणं दिसाण ] इसलिये सब ही पूर्व आदि प्रसिद्ध दस दिशाओंका [उवमोगं जाणिचा ] अपना उपयोग ( प्रयोजन कार्य ) जानकर [जं परिमाणं कीरदि] जो परिमाण करता है [ तं पढमं गुणव्वदं जाण ] वह पहिला गुणव्रत है।
___ भावार्थः-पहिले पांच अणव्रत कहे गये हैं उनके ये गुणव्रत उपकारी हैं। यहाँ गुण शब्द उपकारवाचक लेना चाहिये सो लोभका नाश करने के लिये जैसे परिग्रहका परिमाण करता है वैसे ही लोभका नाश करनेके लिये दिशाका भी परिमाण करता है । जहाँ तकका परिमाण किया है उससे आगे यदि द्रव्य आदिको प्राप्ति होतो हो तो भी वहाँ नहीं जाता है, इस तरहसे लोभ घटा ( कम हुआ ) और हिंसाका पाप भी परिमाणसे आगे न जानेके कारण वहाँ सम्बन्धी नहीं लगता है इसलिये परिमाण ( मर्यादा ) के बाहर महाव्रत समान हुआ।
अब दूसरे गुणव्रत अनर्थदण्ड विरतिको कहते हैं
कज्जं किंपि साहदि, णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो । सो खलु हवे अणत्थो, पंचपयारो वि सो विविहो ॥३४३।।
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