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धर्मानुप्रेक्षा
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प्रोषध प्रतिमामें कहेंगे वैसे ही करे परन्तु यहाँ गाथा में न कही इसलिये सोलह पहरका नियम नहीं है । यह भी मुनिव्रतकी शिक्षा ही है ।
अब अतिथिसंविभाग नामक तीसरे शिक्षाव्रतको कहते हैं
तिविपत्तम्मि सया, साइगुणेहिं संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं, एवदारणविहीहिं संजुत्तो ॥ ३६० ॥ सिक्खावयं च तदियं, तस्स हवे सव्वसोक्खसिद्धियरं । दाणं चउव्विहं पिय, सव्वे दागाण सारयरं ॥ ३६१ ॥
अन्वयार्थः - [ जो णाणी] जो ज्ञानी श्रावक [तिविहे पचम्मि सया साइगुणेहिं संजुदो ] उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन प्रकारके पात्रोंके लिए दाताके श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त होकर [णवदाणविहीहिं संजतो सयं दाणं देदि ] नवधाभक्तिसे संयुक्त होता हुआ नित्यप्रति अपने हाथसे दान देता है [ तस्स तदियं सिक्खावयं हवे ] उस श्रावक के तीसरा शिक्षाव्रत होता है । वह दान कैसा है ? [ दाणं चउव्विहं पि य ] आहार, अभय, औषध, शास्त्रदान के भेदसे चार प्रकारका है [ सव्वे दाणाण सारयरं ] अन्य लौकिक धनादिकके दानों में अतिशयरूप से सार है, उत्तम है [ सव्वसोक्खसिद्धियरं ] सब सिद्धि और सुखको करनेवाला है ।
भावार्थ:- तीन प्रकारके पात्रों में उत्कृष्ट तो मुनि, मध्यम अणुव्रती श्रावक, जघन्य अविरत सम्यग्दृष्टि है । दाताके सात गुण श्रद्धा तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, शक्ति ये सात हैं तथा अन्य प्रकार भी कहे गये हैं जैसे -इ -इस लोकके फलकी वांछा न करे, क्षमावान् हो, कपट रहित हो, अन्यदाता से ईर्षा न करे, दिए हुए का विषाद न करे, देकर हर्ष करे, गर्व न करे इस तरह भी सात कहे गये हैं । प्रतिग्रह, उच्च स्थान, पादप्रक्षालन, पूजा करना, प्रमाण करना, मनकी शुद्धता, वचनकी शुद्धता, कायकी शुद्धता, आहारकी शुद्धता ये नवधाभक्ति हैं । ऐसे दाताके गुण सहित पात्रको नवधाभक्तिसे नित्य चार प्रकारका दान देता है उसके तीसरा शिक्षाव्रत होता है । यह भी मुferent शिक्षा के लिये है कि देना सीखे क्योंकि वैसे ही अपनेको मुनि होने पर लेना होगा ।
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