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धर्मानुप्रेक्षा अब दानके माहात्म्य ही को फिर कहते हैं
इहपरलोयणिरीहो, दाणं जो देदि परमभत्तीए । रयणत्तये सुठविदो, संघो सयलो हवे तेण ॥३६५।। उत्तमपत्तविसेसे, उत्तमभत्तीए उत्तमं दाणं ।
एयदिणे वि य दिगण, इंदसुहं उत्तमं देदि ॥३६६॥
अन्वयार्थः-[जो इहपरलोयणिरीहो परमभत्तीए दाणं देदि] जो पुरुष (श्रावक) इस लोक परलोकके फलकी वांछासे रहित होकर परम भक्तिसे संघके लिये दान देता है [ तेण सयलो संघो रयणतये सुठविदो हवे ] उस पुरुषके सकग संघको रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) में स्थापित किया [ उत्तमपच विसेसे उत्तमभत्तीए उत्तम दाणं ] उत्तम पात्र विशेष के लिये उत्तम भक्तिले उत्तम दान [ एयदिणे त्रि य दिण्णं इंदसुहं उत्तमं देदि ] एक दिन भी दिया हुआ उत्तम इन्द्रपदके सुखको देता है।
भावार्थ:-दानके देने से चतुविध संघकी स्थिरता होती है इसलिये दानके देनेवालेने मोक्षमार्ग हो चलाया ऐसा कहना चाहिए । उत्तम ही पात्र, उत्तम ही दाताकी भक्ति और उत्तम ही दान, सब ऐसी विधि मिले तो उसका उत्तमही फल होता है । इन्द्रादि पदका सुख मिलता है।
अब चौथे देशावकाशिक शिक्षाबतको कहते हैंपुवपमाणकदाणं, सवदिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदियविसयाण तहा, पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥३६७॥ वासादिकयपमाणं, दिणे दिणे लोहकामसमण8 ।
सावज्जवज्जण?', तस्स चउत्थं वयं होदि ॥३६८॥
अन्वयार्थः--[ पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं ] श्रावकने जो पहिले सब दिशाओंका परिमाण किया था उसका और भी संवरण करे (संकोच करे) [इदियविसयाण तहा पुणो वि जो संवरणं कुणदि ] और वैसे ही पहिले इन्द्रियों के विषयोंका परिमाण भोगोपभोग परिमाणमें किया था उसका और संकोच करे । किस तरहे ? सो कहते हैं-[वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोहकामसमण8 ] वर्ष आदि
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