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कातिकेयामुप्रेक्षा अब आहार आदि दानोंका माहात्म्य कहते हैं-- भोयणदाणेण सोखं, अोसहदाणेण सत्थदाणं च ।
जीवाण अभयदाणं, सुदुल्लहं सव्वदाणेसु ॥३६२॥
अन्वयार्थः--[ भोयणदाणेण सोक्खं ] भोजनदानसे सबको सुख होता है [ ओसहदाणेण सत्थदाणं च ] औषधदान सहित शास्त्रदान [ जीवाण अभयदाणं ] और जीवोंको अभयदान [ सव्वदाणेसु सुदुल्लहं ] सब दानोंमें दुर्लभ है, उत्तम दान है ।
भावार्थ:-यहाँ अभयदानको सबसे श्रेष्ठ कहा है । अब आहारदानको प्रधान करके कहते हैं--- भोयणदाणे दिण्णे, तिगिण वि दाणाणि होति दि गणाणि । भुक्खतिसाएवाही, दिणे दिणे होति देहीणं ॥३६३॥ भोयणबलेण साहू, सत्थं संवेदि रत्तिदिवसं पि। भोयणदाणे दिरणे, पाणा वि य रक्खिया होति ॥३६४॥
अन्वयार्थः- [ भोयणदाणे दिण्णे तिणि वि दाणाणि होति दिण्णाणि ] भोजन दान देने पर तीनों ही दान दिये हुए हो जाते हैं [ भुक्खतिसाएवाही देहीणं दिणे दिण होति ] क्योंकि भूख प्यास नामके रोग प्राणियोंके दिन प्रतिदिन होते हैं [ भोयणबलेण साहू रचिदिवसं पि सत्थं संवेदि ] भोजनके बलसे साधु रात दिन शास्त्रका अभ्यास करता है [ भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति ] भोजनके देनेसे प्राणोंकी भी रक्षा होती है । इस तरह भोजनदान में औषध शास्त्र अभयदान ये तीनों ही दिये हुए जानना लाहिये।
भावार्थ:-भूख तृषा ( प्यास ) रोग मिटानेसे तो आहारदानं ही औषधदान हुआ । आहारके बलसे शास्त्राभ्यास सुखसे होनेके कारण ज्ञानदान भी यही हुआ । आहार ही से प्राणोंकी रक्षा होती है इसलिये यहो अभयदान हुआ । इस तरह इस दान में तीनों ही गभित हो गये ।
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