Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 187
________________ १६८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-जो] जो सम्यग्दृष्टि श्रावक वारसआवत्तसंजदो] बारह आवर्त्त सहित [ चदुप्पणामो] चार प्रणाम सहित [ णमणमदुर्ग पि कुणतो ] दो नमस्कार करता हुआ [ पसण्णप्पा ] प्रसन्न है आत्मा जिसकी [ धीरो] धीर ( दृढ़चित्त ) होकर [ काउसग्गं कुणदि ] कायोत्सर्ग करता है [ ससरूवं चिंतंतो ] उससमय अपने चैतन्यमात्र शुद्ध स्वरूपका ध्यान चितवन करता हुआ रहे [ जिणबिंब अहव अक्खरं परमं ] अथवा जिनबिंबका चितवन करता रहे अथवा परमेष्ठीके वाचक पंच नमस्कार मन्त्रका चितवन करता रहे [ कम्मविवायं ज्झायदि ] अथवा कर्मके उदयके रसकी जातिका चितवन करता रहे [ तस्स सामइयं वयं होदि ] उसके सामायिक व्रत होता है । भावार्थः-सामायिकका वर्णन तो पहिले शिक्षाव्रतमें किया था कि 'राग द्वेष छोड़ समभाव सहित क्षेत्र काल आसन ध्यान मन वचन कायकी शुद्धतासे कालकी मर्यादा कर एकान्त स्थानमें बैठे और सर्व सावद्ययागका त्याग कर धर्मध्यानरूप प्रवर्ते' ऐसा कहा था। यहां विशेष कहा कि कायसे ममत्व छोड़ कायोत्सर्ग करे, आदि अंत में दो नमस्कार करे और चारों दिशाओं में सन्मुख होकर चार शिरोनति करे, एक एक शिरोनतिमें मन वचन कायकी शुद्धताकी सूचनारूप तीन तीन आवर्त करे ( इस तरह बारह आवर्त्त हुए ) ऐसे कर कायसे ममत्व छोड़ निजस्वरूपमें लीन हो जिनप्रतिमामें उपयोग लोन करे, पंच परमेष्टोके वाचक अक्षरों का ध्यान करे, यदि उपयोग किसी बाधाकी तरफ जाय तो उससमय कर्मके उदयकी जातिका चितवन करे कि यह साता वेदनीयका फल है, यह असाताके उदयकी जाति है, यह अन्तरायके उदयको जाति है इत्यादि कर्मके उदयका चितवन करे यह विशेष कहा है। इतना विशेष जानना चाहिये कि शिक्षाबतमें तो मन वचन काय सम्बन्धो कोई अतिचार भी लगता है और कालकी मर्यादा आदि क्रिया में हीनाधिक भी होता है परन्तु यहाँ प्रतिमाकी प्रतिज्ञा है सो अतिचार रहित शुद्ध पालन करता है, उपसर्ग आदिके निमित्तसे टलता नहीं है ऐसा जानना चाहिये । इसके पाँच अतिचार हैं । मन वचन कायका चलायमान करना, अनादर करना, भूल जाना ये अतिचार नहीं लगाता है । ऐसे सामायिक प्रतिमाका बारह भेदकी अपेक्षा चौथे भेदका वर्णन हुआ। अब प्रोषधप्रतिमाका स्वरूप कहते हैं सत्तमितेरसिदिवसे, अवररहे जाइऊण जिणभवणे । किरियाकम्मं किच्चा, उवासं चउविहं गहिय ॥३७३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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