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कातिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[जो अत्थो कज्ज किंपि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि ] जो कार्य प्रयोजन तो अपना कुछ सिद्ध करता नहीं है और केवल पापही को उत्पन्न करता है [ सो खलु अणत्थो हवे ] वह अनर्थ कहलाता है [ सो पंचपयारो विविहो वि ] वह पांच प्रकारका है तथा अनेक प्रकारका भी है।
___ भावार्थः-निःप्रयोजन पाप लगाना अनर्थदण्ड है वह पाँच प्रकारका कहा गया है । अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसाप्रदान, दुःश्रुतश्रवणादि और अनेक प्रकारका भी है।
अब पहिले भेदको कहते हैंपरदोसाण वि गहणं, परलच्छीणं समीहणं जं च ।
परइत्थीअवलोओ, परकलहालोय पढमं ॥३४४॥
अन्वयार्थः- [ परदोसाणं वि गहणं ] दूसरेके दोषोंको ग्रहण करना [ परलच्छी समीहणं जंच ] दूसरेकी लक्ष्मो ( धन सम्पदा ) की वांछा करना [ परइत्थीअवलोओ ] दूसरेकी स्त्रीको रागसहित देखना [ परकलहालोयणं ] दूसरेकी कलहको देखना इत्यादि कार्योंको करना [ पढमं ] सो पहिला अनर्थदण्ड है।
भावार्थः -दूसरेके दोषोंको ग्रहण करनेसे अपने भाव तो बिगड़ते हैं और अपना प्रयोजन कुछ सिद्ध होता नहीं है, दूसरेका बुरा होवे और अपनी दुष्टता सिद्ध होती है। दूसरेको सम्पदा देखकर आप उसकी इच्छा करे तो आपके कुछ आ नहीं जाती, बिना प्रयोजनके भाव ही बिगड़ते हैं । दूसरेको स्त्रीको रागसहित देखने में भी आप त्यागी होकर बिना प्रयोजन भाव क्यों बिगाड़े ? दूसरेकी कलह देखने में भी कुछ अपना कार्य सिद्ध नहीं होता किन्तु अपने पर भी कुछ आपत्ति आ पड़नेकी सम्भावना बन सकती है ऐसे और भी काम जिनमें अपने भाव बिगड़ते हों वहाँ अपध्यान नामका पहिला अनर्थदण्ड होता है सो अणुव्रतोंके भंगका कारण है इसके छोड़ने पर व्रत दृढ़ रहते हैं।
अब दूसरे पापोपदेश नामक अनर्थदण्डको कहते हैंजो उवएसो दिज्जइ, किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु । पुरिसित्थीसंजोए, अणत्थदंडो हवे बिदिओ ॥३४५॥
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