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कार्तिकेयानुप्रेक्षा छोटोको पुत्री के समान मन वचन कायसे जानता है [ सो धूलो बंभवई हवे ] वह स्थूल ब्रह्मचर्यका धारक श्रावक है ।
भावार्थ:-इस व्रतका धारी परस्त्रीका तो मनवचनकाय कृतकारित अनुमोदनासे त्याग करता है और स्वस्त्रीमें सन्तोष रखता है । तीवकामके विनोद क्रीड़ारूप प्रवृत्ति नहीं करता है क्योंकि स्त्रीके शरीरको अपवित्र दुर्गन्धयुक्त जानकर वैराग्य भावनारूप भाव रखता है और कामकी तीव्र वेदना इस स्त्रीके निमित्तसे होती है इसलिये उसके रूप लावण्य आदि चेष्टाको मनको मोहनेका, ज्ञानको भुलानेका, कामको उत्पन्न करानेका कारण जानकर विरक्त रहता है वह चतुर्थ अणुव्रतका धारक होता है । इसके अति वार परविवाह करना, दूसरे विवाहित अविवाहित स्त्रीका संसर्ग, कामको क्रीड़ा, कामका तीव्र अभिप्राय ये कहे गये हैं ये 'स्त्रीके शरीर से विरक्त रहना' इस विशेषणमें गभित हैं । परस्त्रीका त्याग तो पहिली प्रतिमा सात व्यसनोंके त्यागमें आ चुका है यहाँ पर अति तीव्र कामकी वासनाका भी त्याग है इसलिये अतिचार रहित व्रत पालन करता है, अपनी स्त्रीमें भी तीव्र रागी नहीं होता है । ऐसे ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन किया ।
अब परिग्रहपरिमाण नामक पाँचवें अणुव्रतका स्वरूप कहते हैं
जो लोहं णिहणित्ता, संतोसरसायणेण संतुट्ठो । णिहणदि तिराहा दुट्ठा, मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ।।३३६॥ जो परिमाणं कुवदि, धणधाणसुवरणखित्तमाईणं । उवोगं जाणित्ता, अणुव्वदं पंचमं तस्स ॥३४०॥
अन्वयार्थः-[ जो लोहं णिहणित्ता सतोसरसायणेण संतुट्ठो ] जो पुरुष लोभ कषायको होन कर संतोष रूप रसायनसे संतुष्ट होकर [ सव्वं ] सब [ धणधाणसुवण्णखित्तमाईणं ] धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि परिग्रहको [ विणस्सरं मण्णतो] विनाशीक मानता हुआ [ दुट्ठा तिण्हा णिहणदि ] दुष्ट तृष्णाको अतिशयरूपसे नाश करता है [ उवओगं जाणित्ता ] धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि परिग्रहका अपना उपयोग ( आवश्यकता एवं सामर्थ्य ) जानकर उसके अनुसार [ जो परिमाणं कुव्वदि ] जो परिमाण करता है [ तस्स पंचमं अणुव्वदं ] उसके पाँचवाँ अणुव्रत होता है ।
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