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बोधिदुर्लभानुक्षा सम्मत्ते वि य लद्धे, चारित्तं णेव गिण्हदे जीवो। अह कह वि तं पि गिराह दि, तो पालेदुण सक्केदि ॥२६५॥
अन्वयार्थः-[सम्मत्रो वि य लद्धे ] यदि सम्यक्त्व भी प्राप्त हो जाय तो [ जीवो चारित्तं णेव गिण्हदे ] यह जीव चारित्र ग्रहण नहीं करता है [ अह कह वि तं पि गिण्हदि ] यदि चारित्र भी ग्रहण करले [ तो पालेदु ण सक्केदि ] तो उसको पाल नहीं सकता है।
रयणत्तये वि लद्धे, तिव्वकसायं करेदि जइ जीवो। तो दुग्गईसु गच्छदि, पण?रयणत्तो होऊ ॥२६६।।
अन्वयार्थः -[जइ जीवो] यदि यह जोव [रयणतये वि लद्धे रत्नत्रय भी पाता है। तिब्धकसायं करेदि ] और तीव्रकषाय करता है [ तो] तो [ पणदुरयणतओ होऊ ] रत्नत्रय का नाश करके [ दुग्गईसु गच्छदि ] दुर्गतियों में जाता है ।
अब कहते हैं कि ऐसा मनुष्य पना दुर्लभ है जिससे रत्नत्रयकी प्राप्ति होरयणु व्व जल हि-पडियं मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं ।
एवं सुणिच्छइत्ता, मिच्छकसाये य वज्जेह ॥२६७॥ ___ अन्वयार्थः-[ जलहि पडियं रयणु व्व मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं होइ ] समुद्र में गिरे हुए रत्नको प्राप्तिके समान मनुष्यत्वकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है [ एवं सुणिच्छइत्ता ] ऐसा निश्चय करके हे भव्यजीवो ! [ मिच्छाकसाये य वज्जेह ] मिथ्यात्व और कषायोंको छोड़ो ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है ।
अब कहते हैं कि यदि ऐसा मनुष्यत्व पाकर शुभपरिणामोंसे देवत्व पावे तो वहाँ चारित्र नहीं पाता है
अहवा देवो होदि हु, तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं । तो तवचरणं ण लहदि, देसजमं सील लेसं पि ॥२६॥
अन्वयार्थः- [ अहवा देवो होदि हु ] अथवा मनुष्यत्व में कदाचित् शुभपरिणाम होनेसे देव भी हो जाय [ तत्थ वि कह व सम्मत्तं पावेदि ] और वहाँ कदाचित् सम्यक्त्व भी पा लेवे [ तो तवचरणं ण लहदि ] तो वहाँ तपश्चरण चारित्र नहीं पाता है
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