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कार्तिकेयानुप्रेक्षा दृढ़चित्त हो और समताभाव सहित हो [णाणी वयसावओ होदि ] ज्ञानवान हो, वह व्रतप्रतिमाका धारक श्रावक है ।
भावार्थ:-यहाँ अणु शब्द अल्पका वाचक है जो पाँचों पापोंमें स्थूल पाप हैं उनका त्याग है इसलिये अणुव्रत संज्ञा है । गुणव्रत और शिक्षाव्रत उन अणुव्रतोंको रक्षा करनेवाले हैं इसलिये अणुव्रती उनको भी धारण करता है । इसके प्रतिज्ञा व्रतकी है सो दृढ़चित्त है, कष्ट उपसर्ग परिषह आने पर भी शिथिल नहीं होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायके अभावसे ये व्रत होते हैं और प्रत्याख्यानावरण कषायके मन्द उदयसे होते हैं इसलिये उपशमभाव सहित विशेषण दिया है । यद्यपि दर्शनप्रतिमा धारीके भी अप्रत्याख्यानावरणका अभाव तो हो गया है परन्तु प्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र स्थानोंके उदयसे अतीचार रहित पाँच अणुव्रत नहीं होते हैं इसलिये अणुव्रत संज्ञा नहीं आती है और स्थूल अपेक्षा अणुव्रत उसके भी त्रसके भक्षणके त्यागसे अणुत्व है । व्यसनोंमें चोरीका त्याग है इसलिये असत्य भी इसमें गभित है । परस्त्रीका त्याग है, वैराग्य भावना है इसलिये परिग्रहके भी मूर्छाके स्थान घटते हैं परिमाण भी करता है परन्तु निरतिचार नहीं होते इसीलिये व्रत प्रतिमा नाम नहीं पाता है । ज्ञानी विशेषण भी उचित हो है, सम्यग्दृष्टि हो, व्रतका स्वरूप जान गुरुओंकी दी हुई प्रतिज्ञा लेता है वह ज्ञानी ही है ऐसा जानना चाहिये ।
अब पाँच अणुव्रतोंमेंसे पहिले अणुव्रतको कहते हैं
जो वावरइ सदओ, अप्पाणसमं परं पि मण्णंतो। निंदणगरहणजुत्तो, परिहरमाणो महारंभे ॥३३१॥ तसघादं जो ण करदि, मणवयकाएहि णेव कारयदि । कुवंतं पि ण इच्छदि, पढमवयं जायदे तस्स ॥३३२॥
अन्वयार्थः- [ तसघादं जो ण करदि मणवयकाएहि णेव कारयदि ] जो श्रावक त्रसजीव दोइन्द्रिय तेन्द्रिय चौइन्द्रिय पंचेन्द्रियका घात मन वचन कायसे आप नहीं करे, दूसरेसे नहीं करावे [ कुवंतं पि ण इच्छदि ] और अन्यको करते हुएको इष्ट (अच्छा) नहीं माने [ तस्स पढमवयं जायदे ] उसके पहिला अहिंसाणुव्रत होता है । कैसा है श्रावक ? [ जो सदओ वावरइ ] जो दयासहित तो व्यापार कार्यमें प्रवृत्ति करता है [ अप्पाणसमं परं पि मण्णतो ] सब प्राणियोंको अपने समान मानता है [ निंदणगर
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