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धर्मानुप्रेक्षा
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देखनेमें आती है उसका भी नाम दर्शन है सो सम्यग्दृष्टि होकर जिनमतका सेवन करे और अभक्ष्य तथा अन्याय अंगीकार करे तो सम्यक्त्वको तथा जिनमतको लज्जित करे - मलिन करे इसलिए इनको नियमपूर्वक छोड़ने पर ही दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक होता है ।
दिढचित्तो जो कीरदि, एवं पि वयं शियाण परिहीणो । वेरग्भावियमणो, सो वि य दंसणगुणो होदि ॥ ३२६ ॥
अन्वयार्थः– [ एवं पि वयं ] ऐसे व्रतको [दिढचित्तो] दृढ़चित्त हो [ णियाणपरिहीणो ] निदान ( इस लोक परलोकके भोगोंकी वांछा ) से रहित हो [ वेरग्गभावियमणो ] वैराग्य से भावित ( गीला ) मन वाला होता हुआ [ जो कीरदि ] जो सम्यग्दृष्टि पुरुष करता है [ सोविय दंसणगुणो होदि ] वह दार्शनिक श्रावक होता है ।
भावार्थ:- पहिली गाथा में श्रावकका स्वरूप कहा था उसीके ये तीन विशेषण और जानना चाहिये । पहिले तो दृढ़चित्त हो, परीषह आदि कष्ट आवे तो व्रतकी प्रतिज्ञासे चलायमान नहीं हो । निदान रहित हो, इस लोक सम्बन्धी यश सुख सम्पत्ति वा परलोकसम्बन्धी शुभगतिकी वांछा रहित हो । वैराग्य भावनासे जिसका चित्त सिंचित हो । अभक्ष्य तथा अन्यायको अत्यन्त अनर्थ जानकर त्याग करे ऐसा नहीं कि ये शास्त्रमें त्यागने योग्य कहे हैं इसलिये छोड़ना चाहिये और परिणामों में राग मिटे नहीं । त्यागके अनेक आशय होते हैं सो इसके अन्य आशय नहीं होता, केवल तीव्र कषायके निमित्त महा पाप जानकर त्याग करता है । इनका त्याग करने पर ही आगामी प्रतिमाके उपदेश योग्य होता है । व्रती निःशल्य कहा गया है इसलिये शल्यरहित त्याग होता है इस तरह दर्शनप्रतिमाधारी श्रावकके स्वरूपका वर्णन किया । अब दूसरी व्रतप्रतिमाका स्वरूप कहते हैं
पंचान्वयधारी, गुणवयसिकाएहिं संजुत्तो ।
दिढचित्तो समजुत्तो, गाणी वयसावओो होदि ॥ ३३० ॥
अन्वयार्थः - [ पंचाणुव्वयधारी ] जो पाँच अरपुव्रतोंका धारक हो [ गुणवयसिक्खावहिं संजुत्तो ] तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत सहित हो [दिढचित्तो समजुत्तो ]
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