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धर्मानुप्रेक्षा
१३५ अन्वयार्थः-[ तेणुवइट्ठो धम्मो ] उस सर्वज्ञके द्वारा उपदेश किया हुआ धर्म दो प्रकारका है [ संगासत्ताण तह असगाणं ] १ संगासक्त ( गृहस्थ ) का और २ असंग ( मुनि ) का [ पढमो बारहमेमो ] पहिला गृहस्थका धर्म तो बारह भेदरूप है [विदिभो दसभेओ ] दूसरा मुनिका धर्म दस भेदरूप है ।
अब गृहस्थ धर्मके बारह भेदोंके नाम दो गाथाओंमें कहते हैं
सम्मदंसणसुद्धो, रहिओ मज्जाइथूलदोसेहिं । वयधारी सामइउ, पववई पासुयाहारी ॥३०५।। राईभोयणविरओ, मेहुणसारं भसंगचत्तो य । कज्जाणुमोयविरदो, उहिट्ठारविरदो य ॥३०६॥
अन्वयार्थः-[ सम्मदंसणसुद्धो मजाइलदोसेहिं रहिओ ] १ शुद्ध सम्यग्दृष्टि, २ मद्य आदि स्थूल दोषोंसे रहित दर्शन प्रतिमाका धारी [ वयधारी ] ३ व्रतधारी ( पांच अगुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षावत इन बारह व्रत सहित ) [ सामइउ ] ४ सामायिक प्रती [ पावई ] ५ पर्ववती [ पासुयाहारी ] ६ प्रासुकाहारी [ राईभोयणविरओ ] ७ रात्रिभोजनत्यागी [ मेहुणसारंभसंगचत्तो य ] ८ मैथुनत्यागी ६ आरम्भत्यागी १० परिग्रहत्यागी [ कजाणुमोयविरदो ] ११ कार्यानुमोदविरत [ उद्दिवाहारविरदो य ] और १२ उद्दिष्टाहारविरत इसप्रकार श्रावकधर्मके १२ भेद हैं।
भावार्थ:-पहिला भेद तो पच्चीस मल दोष रहित शुद्धअविरतसम्यग्दृष्टि है और ग्यारह भेद व्रत सहित प्रतिमाओंके होते हैं वह व्रतो श्रावक है ।
___ अब इन बारहके स्वरूप आदिका व्याख्यान करेंगे । पहिले अविरतसम्यग्दृष्टिको कहेंगे । उसमें भी पहिले सम्यक्त्वको उत्पत्तिकी योग्यताका निरूपण करते हैं
चउगदिभवो सरणी, सुविसुद्धो जग्गमाणपज्जत्तो । संसारतडे, नियडो, णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥३०७॥
अन्वयार्थः-[ चउगदिभवो सण्णी ] पहिले तो भव्यजीव होवे क्योंकि अभव्यके सम्यक्त्व नहीं होता है, चारों ही गतियोंमें सम्यक्त्व उत्पन्न होता है परन्तु
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