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कार्तिकेयानुप्रेक्षा मन सहित ( सैनी ) के हो उत्पन्न हो सकता है, असैनी के उत्पन्न नहीं होता है [सुविसुद्धो ] उस में भी विशुद्ध परिणामी हो, शुभ लेश्या सहित हो, अशुभ लेश्यामें भी शुभ लेश्याके समान कषायोंके स्थान होते हैं उनको उपचारसे विशुद्ध कहते हैं, संक्लेश परिणामोंमें सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [ जग्गमाणपजतो ] जगते हुएके होता है, सोये हुएके नहीं होता है, पर्याप्त ( पूर्ण ) के होता है, अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता है [ संसारतडे नियडो] संसारका तट जिसके निकट आगया हो (जो निकट भव्य हो) जिसका अर्द्धपुद्गल परावर्तन कालसे अधिक संसारभ्रमण शेष हो उसको सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [ णाणी ] ज्ञानी हो अर्थात् साकार उपयोगवान् हो, निराकार दर्शनोपयोगमें सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [ सम्म पावे ] ऐसे जीवके सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है ।
अब सम्यक्त्व तीन प्रकारका है, उनमें उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति कैसे है सो कहते हैं
सत्तण्हं पयडीणं, उवसमदो होदि उवसमं सम्मं ।
खयदो य होदि खइयं, केवलिमूले मणूसस्स ॥३०८॥
अन्वयार्थः-[ सत्तण्हं पयडीणं उबसमदो उत्सम सम्मं होदि ] मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात मोहनीयकर्मको प्रकृतियोंके उपशम होनेसे उपशम सम्यक्त्व होता है [ य खयदो खइयं होदि ] और इन सातों मोहनोय कर्मको प्रकृतियों के क्षय होनेसे क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है [ केवलिमूले मणूसस्स ] यह क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवलोके निकट कर्मभूमिके मनुष्य के हो उत्पन्न होता है।।
भावार्थ:-यहाँ ऐसा जानना चाहिये कि क्षायिक सम्यक्त्वका प्रारम्भ तो केवली श्रुतकेवलोके निकट मनुष्य के ही होता है और निष्ठापन अन्य गति में भी होता है।
अब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कैसे होता है सो कहते हैं
अणउदयादो छण्हं, सजाइरूवेण उदयमाणाणं । सम्मत्तकम्म उदए, खयउवसमियं हवे सम्मं ॥३०६।।
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