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धर्मानुप्रेक्षा
१४१ प्रयोजन सम्भवता है । इसी तरह अभेद नयको मुख्य करने पर अभेद दृष्टि में भेद दिखाई नहीं देता तब उसमें ही भेद कहता है सो असत्यार्थ है वहाँ भो उपचार सिद्ध होता है इस मुख्य गौणके भेदको सम्यग्दृष्टि जानता है ।
मिथ्यादृष्टि अनेकान्त वस्तुको नहीं जानता है और सर्वथा एक धर्म पर दृष्टि पड़ती है तब उसहीको सर्वथा वस्तु मानकर अन्य धर्मको या तो सर्वथा गौण कर असत्यार्थ मानता है, या सर्वथा अन्य धर्मका अभाव हो मानता है उससे मिथ्यात्व दृढ़ होता है सो यह मिथ्यात्व नामक कर्मकी प्रकृतिके उदय में यथार्थ श्रद्धा नहीं होती है इसलिये उस प्रकृतिका कार्य भी मिथ्यात्व ही कहलाता है। उस प्रकृतिका अभाव होने पर तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान होता है सो यह अनेकान्त वस्तु में प्रमाण नयसे सात भंगोंके द्वारा सिद्ध किया हुआ सम्यक्त्वका कार्य है इसलिये इसको भी सम्यक्त्व ही कहते हैं ऐसा जानना चाहिये । जैनमतमें कथन अनेक प्रकारका है सो अनेकान्तरूप समझना और इसका फल अज्ञानका नाश होकर उपादेयकी बुद्धि और वीतरागताकी प्राप्ति है । इस कथनका मर्म ( रहस्य ) जानना बड़े भाग्यसे होता है । इस पंचम काल में इससमय इस कथनोके गुरुका निमित्त सुलभ नहीं है इसलिये शास्त्र समझनेका निरन्तर उद्यम रखकर समझना योग्य है क्योंकि इसके आश्रयसे मुख्यतया सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है । यद्यपि जिनेन्द्रकी प्रतिमाके दर्शन तथा प्रभावना अंगका देखना इत्यादि सम्यक्त्वकी प्राप्तिके कारण हैं तथापि शास्त्रका श्रवण करना, पढ़ना, भावना करना, धारणा, हेतुयुक्तिसे स्वमत परमतका भेद जानकर नयविवक्षाको समझना, वस्तुका अनेकान्त स्वरूप निश्चय करना मुख्य कारण हैं, इसलिये भव्य जीवोंको इसका उपाय निरन्तर रखना योग्य है ।
अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि होने पर अनन्तानुबन्धी कषायका अभाव होता है, उसके निर्मद-मृदु परिणाम कैसे होते हैं
जो ण य कुव्वदि गव्वं, पुत्त कलत्ताइसव्वअत्थेसु ।
उवसमभावे भावदि, अप्पाणं मुणदि तिणमित्तं ॥३१३॥
अन्वयार्थः- [जो ] जो सम्यग्दृष्टि होता है वह [ पुत्तकलत्ताइसब्बअत्थेसु ] पुत्र कलत्र आदि सब परद्रव्य तथा परद्रव्योंके भावों में [ गव्वं ण य कुब्वदि ] गर्व नहीं करता है, परद्रव्यों से आपके बड़प्पन माने तो सम्यक्त्व कैसा ? [ उवसमभावे भावदि ]
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