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कातिकेयानुप्रेक्षा उपशम भावोंको भाता है, अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी तीव्र रागद्वेष परिणामके अभावसे उपशम भावोंकी भावना निरन्तर रखता है [ अप्पाणं तिणमित्तं मणदि ] अपनी आत्माको तृणके समान हीन मानता है क्योंकि अपना स्वरूप तो अनन्त ज्ञानादिरूप है इसलिये जबतक उसकी प्राप्ति नहीं होती है तबतक अपनेको वर्तमान पर्याय में तृणतुल्य मानता है, किसी में गर्व नहीं करता है ।
अब द्रव्य-दृष्टिका बल दिखाते हैंविसयासत्तो वि सया, सव्वारं भेसु वट्टमाणो वि ।
मोह विलासो एसो, इदि सव्वं मण्णदे हेयं ॥३१४॥
अन्वयार्थ:-[ विसयासतो वि सया] अवरित सम्यग्दृष्टि यद्यपि इन्द्रियविषयोंमें आसक्त है [ सवारंभसु वट्टमाणो वि] त्रस स्थावर जीवोंका घात जिनमें होता है ऐसे सब आरम्भोंमें वर्तमान है, अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायोंके तीव्र उदयसे विरक्त नहीं हुआ है [ इदि सव्वं हेयं मण्णदे ] तो भी सबको हेय ( त्यागने योग्य ) मानता है और ऐसा जानता है कि [ एसो मोहविलासो ] यह मोहका विलास है, नेरे स्वभावमें नहीं है, उपाधि है, रोगवत् है, त्यागने योग्य है, वर्तमान कषायोंकी पीड़ा सही नहीं जाती है इसलिये असमर्थ होकर विषयों के सेवन तथा बहु आरम्भमें प्रवृत्ति होती है ऐसा मानता है।
उत्तमगुणगहणरओ, उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मियअणुराई, सो सद्दिट्ठी हवे परमो ॥३१५॥
अन्वयार्थ:-[ उत्तमगुणगहणरओ ] सम्यग्दृष्टि कैसे होता है-उत्तम गुण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप आदिके ग्रहण करने में अनुरागी होता है [ उत्तमसाहूण विणयसंजत्तो ] उन गुणोंके धारक उत्तम साधुओंमें विनय संयुक्त होता है [ साहम्मिय अणुराई ] अपने समान सम्यग्दृष्टि साधर्मियों में अनुरागी होता है, वात्सल्य गुणसहित होता है [ सो परमो सद्दिट्ठी हवे ] वह उत्तम सम्यग्दृष्टि होता है । यदि ये तीनों भाव नहीं होते हैं तो जाना जाता कि इसके सम्यक्त्वका यथार्थपना नहीं है।
देहमिलियं पि जीवं, णियणाणगुणेण मुणदि जो भिगणं । जीवमिलियं पि देहं, कंचुवसरिसं वियाणेई ॥३१६॥
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