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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कहते हैं कि मनुष्य भी होवे और आर्यखण्डमें भी उत्पन्न हो तो भी उत्तम कुल आदिका पाना अत्यन्त दुर्लभ है
अह लहदि अज्जवंतं, तह ण वि पावेइ उत्तम गोतं । उत्तम कुले वि पत्ते, धणहीणो जायदे जीवो ॥२६१॥
अन्वयार्थ:-[ अह लहदि अजवंत ] मनुष्यपर्याय पाकर यदि आर्यखण्डमें भी जन्म पावे तो [ तह वि उत्तम गोत्तं ण पावेइ ] उत्तम गोत्र ( ऊँच कुल ) नहीं पाता है [ उत्तम कुले वि पत्ते ] यदि ऊँच कुल भी प्राप्त हो जाय तो [ जीवो धणहीणो जायदे ] यह जीव धनहीन दरिद्री हो जाता है उससे कुछ सुकृत नहीं बनता है, पापही में लीन रहता है।
अह धन सहिओ होदि हु, इंदियपरिपुण्णदा तदो दुलहा । अह इंदि य संपुराणो, तह वि सरोश्रो हवे देहो ॥२६२॥
अन्वयार्थः- [ अह धनसहिओ होदि हु] यदि धन सहित भी होवे [ तदो इन्दियपरिपुण्णदा दुलहा ] तो इन्द्रियोंकी परिपूर्णता पाना अत्यन्त के दुर्लभ है [ अह इन्दिय संपुण्णो ] यदि इन्द्रियोंकी सम्पूर्णता भी पावे [ तह वि देहो सरोओ हवे ] तो देह रोगसहित पाता है, निरोग होना दुर्लभ है।
अह णीरोपो होदि हु, तह वि ण पावेइ जीवियं सुइरं । अह चिरकालं जीवदि, तो सोलं णेव पावेइ ॥२६३॥
अन्वयार्थः- [ अह णीरोओ होदि हु ] यदि निरोग भी हो जाय [ तह वि सहरं जीवियं ण पावेइ ] तो दीर्घ जीवन ( आयु ) नहीं पाता है, इसका पाना दुर्लभ है [ अह चिरकालं जीवदि ] यदि चिरकाल तक जीता है [ तो सीलं णेव पावेइ ] तो शील ( उत्तम प्रकृति-भद्र परिणाम ) नहीं पाता है क्योंकि उत्तम स्वभाव पाना दुर्लभ है ।
अह होदि सीलजुत्तो, तह वि ण पावेइ साहुसंसग्गं । अह तं पि कह वि पावदि, सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ॥२६४॥
अन्वयार्थ:-[ अह सीलजत्तो होदि ] यदि शील ( उत्तम ) स्वभाव सहित भी हो जाता है [ तह वि साहुसंमग्गं ण पावेइ ] तो साधु पुरुषोंका संसर्ग ( संगति ) नहीं पाता है [ अह तं पि कह वि पावदि ] यदि वह भी पा जाता है [ तह वि सम्मत्वं अइदुलह ] तो सम्यक्त्व पाना ( श्रद्धान होना ) अत्यन्त दुर्लभ है।
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