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लोकानुप्रेक्षा
१२५ भावार्थ:- तत्त्वार्थका यथार्थ स्वरूप सुनना, जानना, भावना करना और धारणा करना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इस पंचमकालमें तत्त्वके यथार्थ कहनेवाले दुर्लभ हैं और धारण करनेवाले भी दुर्लभ हैं ।
__ अब कहते हैं कि जो कहे हुए तत्त्वको सुनकर निश्चल भावोंसे भाता है वह तत्त्वको जानता है।
तच्चं कहिज्जमाणं, णिच्चलभावेण गिरहदे जो हि । तं चिय भावेदि सया, सो वि य तच्चं वियाणेइ ॥२८०॥
अन्वयार्थः- [जो ] जो पुरुष [ कहिजमाणं तच्चं ] गुरुओंके द्वारा कहे हुए तत्त्वोंके स्वरूपको [ णिच्चलभावेण गिण्हदे ] निश्चलभावसे ग्रहण करता है [तं चिय भावेदि सया ] अन्य भावनाओंको छोड़कर उसीकी निरन्तर भावना करता है [ सो वि य तच्चवियाणेए ] बह ही पुरुष तत्त्वको जानता है।
अब कहते हैं कि जो तत्वको भावना नहीं करता है, वह स्त्री आदिके वशमें कौन नहीं है ? अर्थात् सब लोक है
को ण सो इत्थि-जणे, कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इन्दिएहिं ण जिओ, को ण कसाएहिं संतत्तो ॥२८॥
अन्वयार्थ:-[ इत्थिजणे वसो को ण ] इस लोक में स्त्रीजनके वश कौन नहीं है ? [ कस्स ण मयणेण खंडियं माणं ] कामसे जिसका मन खण्डित न हुआ हो ऐसा कौन है ? [को इंदिएहिं ण जिओ] जो इन्द्रियोंसे न जीता गया हो ऐसा कौन है ? [को ण कसाएहिं संतचो ] और कषायोंसे सप्तायमान हो ऐसा कौन है ?
भावार्थ:-विषय कषायोंके वशमें सब लोक हैं और तत्त्वोंकी भावना करनेवाले विरले ही हैं।
अब कहते हैं कि जो तत्त्वज्ञानी सब परिग्रहका त्यागी होता है वह स्त्री आदिके बश नहीं होता है
सो ण वसो इत्थिजणे, सो ण जिओ इन्दिएहिं मोहेण । जो ण य गिराह दि गंथं, अभंतर बाहिरं सव्वं ॥२८२॥
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