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लोकानुप्रेक्षा
१२३ अन्वयार्थः-[ जो सव्वेसि वत्थूणं ] जो नय सब वस्तुओंके [ संखालिंगादिबहुपयारेहिं ] संख्या लिंग आदि अनेक प्रकारसे [ णाण ] अनेकत्वको [ साहदि ] सिद्ध करता है [तं सद्दणयं वियाणेह ] उसको शब्दनय जानना चाहिये ।।
भावार्थ:-संख्या-एकवचन द्विवचन बहुवचन, लिंग-स्त्री पुरुष नपुंसक आदि शब्दसे काल, कारक, पुरुष, उपसर्ग लेने चाहिये । इनके द्वारा व्याकरणके प्रयोग पदार्थको भेदरूपसे कहते हैं वह शब्दनय है । जैसे-पुष्य, तारका नक्षत्र–एक ज्योतिषी विमानके तीनों लिंग कहे लेकिन व्यवहार में विरोध दिखाई देता है क्योंकि वह ही पुरुष लिंग और वह ही स्त्री नपुसकलिंग किस प्रकार होता है । तथापि शब्द नयका यह ही विषय है जो जैसे शब्द कहता है वैसे ही अर्थको भेदरूप मानना ।
अब समभिरूढनयको कहते हैं
जो एगेगं अत्थं, परिणदिभेदेण साहदे णाणं । मुक्वत्थं वा भासदि, अहिरूढं तं णयं जाण ॥२७६॥
अन्वयार्थः- [ जो अत्थं ] जो नय वस्तुको [ परिणदिभेदेण एगेगं साहदे ] परिणामके भेदसे एक एक भिन्न भिन्न भेद रूप सिद्ध करता है [ वा मुक्खत्थं भासदि ] अथवा उनमें मुख्य अर्थ ग्रहण कर सिद्ध करता है [ तं अहिरूढं णयं जाण] उसको समभिरूढ नय जानना चाहिये ।
भावार्थ:-शब्दनय वस्तुके पर्याय नामसे भेद नहीं करता है और यह समभिरूढ नय-एक वस्तुके पर्याय नाम हैं उनके भेदरूप भिन्न भिन्न पदार्थ ग्रहण करता है, जिसको मुख्यकर ग्रहण करता है उसको सदा वैसा ही कहता है जैसे-गो शब्दके अनेक अर्थ हैं तथा गौ पदार्थके अनेक नाम हैं उन सबको यह नय भिन्न भिन्न पदार्थ मानता है, उनमेंसे मुख्यकर गौ को ग्रहण करता है, उसको चलते, बैठते, और सोते समय गौ ही कहा करता है, ऐसा समभिरूढ नय है ।
अब एवंभूत नयको कहते हैं
जेण सहावेण जदा, परिणदरूवम्मि तम्मयत्तादो। तप्परिणामं साहदि, जो वि णो सो हु परमत्थो ।।२७७।।
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