________________
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
भावार्थ:- संग्रहनय सर्व सत् सबको कहा, उसमें व्यवहार भेद करता है सौ सत् द्रव्यपर्याय है | संग्रहनय द्रव्य सामान्यको ग्रहण करे उसमें व्यवहार नय भेद करता है । द्रव्य जीव अजीव दो भेदरूप है । संग्रहनय जीव सामान्यको ग्रहण करता है उसमें व्यवहार भेद करता है । जीव संसारी सिद्ध दो भेदरूप है इत्यदि । संग्रह पर्याय - सामान्यको संग्रहण करता है । उसमें व्यवहार भेद करता है । पर्याय- अर्थपर्याय व्यंजनपर्याय दो भेदरूप है, ऐसे ही संग्रह अजीव सामान्यको ग्रहण करे उसमें व्यवहारनय भेद करके अजीव पुद्गलादि पाँच द्रव्य भेद रूप है । संग्रह पुद्गल सामान्यको ग्रहण करता है उसमें व्यवहारनय अणु स्कन्ध घट पट आदि भेद रूप कहता है । इस तरह जिसको संग्रह ग्रहण करे उसमें जहाँ तक भेद हो सके करता चला जाय वहाँ तक संग्रह व्यवहारका विषय है । इस तरह तीन द्रव्यार्थिक नयके भेदोंका वर्णन किया ।
१२२
अब पर्यायार्थिक के भेद कहेंगे । पहिले ही ऋजुसूत्रनयको कहते हैंजो वट्टमाणकाले, अत्थपज्जायपरिषद् अत्थं ।
संतं साहदि सव्वं, तं वि णयं रिजुण्यं जाण || २७४ ||
अन्वयार्थः - [ जो वट्टमाणकाले ] जो नय वर्तमान काल में [ अत्थपजायपरिणदं अस्थं ] अर्थ पर्यायरूप परिणत पदार्थको [ सव्वं संतं साहदि ] सबको सत्रूप सिद्ध करता है [ तं विणयं रिजुणयं जाण ] वह ऋजुसूत्र नय है ।
भावार्थ:- वस्तु समय समय परिणमन करती है । अतः एक समयकी वर्तमान पर्याको अर्थ पर्याय कहते हैं, यह इस ऋजुसूत्रनयका विषय है, यह नय इतनी मात्र ही वस्तुको कहता है । घड़ी मुहूर्रा आदि कालको भी व्यवहारमें वर्तमान कहते हैं वह उस वर्त्तमान कालस्थायी पर्यायको भी सिद्ध करता है इसलिये स्थूल ऋजुसूत्र संज्ञा है । इस तरह तीन तो पूर्वोक्त द्रव्याथिक और एक ऋजुसूत्र नय ये चार नय तो अर्थनय कहलाते हैं ।
अब तीन शब्दनय कहेंगे । पहिले शब्दनयको कहते हैं
सव्वेसिं वत्थूणं, संखालिंगादि बहुपयारेहिं । जो साहदि गाणत्तं सद्दणयं तं वियाह ॥ २७५ ॥
Jain Education International
"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org